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काम का आदमी ( लघुकथा )

" मंजू के यहाँ आज बडी़ वाली एल ई डी भी आ गई । पिछले ही महिने उसने गाड़ी भी ली थी । और एक आप है ...!!!"
" मै क्या ....? क्या कहना चाहती हो तुम ?"
वहीं पास के विडियो गेम में लगे बेटे ने भी कंधे को उचका कर पिता की ओर देख फिर अपने गेम में व्यस्त हो गया ।
" मै क्या कहूँगी भला आपसे .! आपकी ही आॅफिस का बाबू है वो ..और आप अधिकारी होकर भी किसी काम के नहीं ..! "
" किसी काम का नहीं मै ....? "- मन में रह - रह कर एक ही बात अब घुम रही थी कि वे क्या किसी काम के नहीं है सच में ..? कल आॅफिस की लाॅबी में भी ठेकेदार के मुंह से परोक्ष में सुना था कि ये किसी काम के नहीं !
अगले ही दिन आॅफिस में ठेकेदार की अपूर्ण फाईल को पूर्ण करने के प्रयास में वे जी जान से लग गये थे ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 609

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Comment by kanta roy on July 6, 2015 at 8:41am
बिलकुल सही कह रहे है आदरणीय विजय निकोरे जी , बेईमानी और भ्रष्टाचार अब हमारे संस्कार बनते जा रहे है । जाने अनजाने ये हम कहाँ जा रहे है । यह सब झूठी दिखावे की जिंदगी को अपनाने के कारण हो रहे है । हमारे घर तक माॅल संस्कृति अपना पैठ बना चुकी है । हम शहर के चौक बाजार की खरीददारी तोल मोल करके भूल गये । कहीं मन के कोने में जेब पर भारी पडती चाहतों का सिसकना ही कारण बन जाती है इन विसंगतियों की । नमन आपको कथा पसंदगी के लिए ।
Comment by kanta roy on July 6, 2015 at 8:34am
दिखावटी दुनिया में यथार्थ की संवेदनायें मानो खत्म हो रही है । सजावटी समान की तरह स्वंय को प्लास्टिक की दुनिया में , हाढ माँस से बने चेहरे पर प्लास्टिक मुस्कान लिए यह कौन सी जिंदगी जीने को हम आतुर है ........आदर्श , मिशाल सब औंधे पड़े है ....एक अंधी दौड़ में सब शामिल होते जा रहे है एक दुसरे की देखा देखी ......... ये विषमता जीवन को जीवन से दूर ले जाकर कहाँ पटकेगी नहीं मालूम । कथा के मर्म को समझने के लिये आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी
Comment by kanta roy on July 6, 2015 at 8:17am
क्या सुंदर पंक्तियाँ गढी है आपने आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी , हत्थे चढ जाने के भय से रोज दबा हूँ ......बडी़ गजब की पंक्तियों में बेबसी सच्चाई की उकेरा है आपने । सच है कि कहीं ना कहीं समाज ,परिवार हम सब ही जिम्मेदार होते है इन विसंगतियों के । आभार आपको हृदय तल से ।
Comment by kanta roy on July 6, 2015 at 8:12am
आभार आपको आदरणीय मनोज कुमार एहसास जी कथा को पसंद करने हेतु ।
Comment by vijay nikore on July 6, 2015 at 2:11am

इमानदारी किसी भी स्तर पर मिलनी कठिन हो गई है ... काम में, व्यवहार में ... जिससे भी किसी का निज लाभ होता है, मानो नियम बदल जाते है। आपकी सशक्त लघु कथा ने कई अनुभव याद दिला दिए।

हार्दिक बधाई, आदरणीया कान्ता जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2015 at 1:33am

रचनाएँ, विशेषकर लघुकथाएँ, विद्रूप परिस्थितियों का आईना हुआ करती हैं. रचना के असहज निर्णय पर पाठक छटपटाता है और यही इस विधा की रचनाओं की सफलता हुआ करती है. विमर्श केलिए जगह बनाना भी लघुकथाओं एक उद्येश्य हुआ करता है.
आपकी रचना जिस ढंग से पाठकमन को कुरेदती है यही उससे अपेक्षित भी है. आदर्श का वर्णन अच्छा है परन्तु यथार्थ का शब्दांकन रचनाकर्म की सच्चाई है.  एक सफल रचनाकार ऐसे ही समाज को आईना दिखाता है.


आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 2:37am

आदरणीया कांता जी सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई 

इसी जमीन पर मैंने अशआर कहे है आपकी लघुकथा के हवाले से दोहरा रहा हूँ -

मीलों पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ
हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ

आज जरुरत पूरी करते - करते घर की
टेबल के नीचे वाली फिर मौत मरा हूँ

Comment by मनोज अहसास on June 18, 2015 at 10:23pm
बहुत बढ़िया
नमन
सादर
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:59pm
बहुत बहुत आभार आपको आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी कथा को पसंद करने के लिए
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:57pm
बिलकुल सही कह रहे है आप आदरणीय कृष्णा मिश्रा जान गोरखपूरी जी की कौन गलत होना चाहेगा ? अपने ही समाज वाले , परिवार वाले ढकेल देते है इस दलदल में ॥ आभार आपको कथा का मर्म जानने के लिए

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