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कोई मांग रहा, कोई छीन रहा।

कोई मांग रहा,
कोई छीन रहा।
तेरा मेरा करता मानव,
सब पा कर भी क्यों दीन रहा।

पत्थर युग से,
मंगल युग तक।
सूरत बदली मूरत बदली,
मन से फिर भी हीन रहा।

छू ले चांद,
कई बार भले।
पर धरती की अनदेखी है,
जहां बचपन कूड़ा बीन रहा।

क्षण भर 'देवी',
फिर खेल खिलौना।
धरा गगन को रोना आया,
तू ईश होकर भी,
समाधि में ही लीन रहा।

जीत लिया जग,
बना सिकंदर।
जाते जाते अपने दो क्षण,
विश्व विजेता मुर्दो का,
क्यों छीन रहा क्यों छीन रहा

'विरेन्दर वीर मेहता'

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 5, 2015 at 10:09am

सुन्दर प्रस्तुति ! हार्दिक बधाई आपको ।

Comment by shree suneel on June 4, 2015 at 9:14am
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय. आपको बधाइयाँ.
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:18pm
आद: मोहन जी प्रोत्साहन भरे शब्दो के लिये आपका हार्दिक आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:12pm
आदरणीय विनय कुमार जी आप का तहे दिल से आभार। आप के शब्दो ने सदैव मेरा मार्ग प्रश्सत किया है।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:08pm
आदरणीय समर कबीर भाई और नरेन्दर सिंह जी रचना पर समय देने और प्रोत्साहित करने के लिये आप लोगो का हार्दिक आभार।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:07pm
आदरणीय समर कबीर भाई और नरेन्दर सिंह जी रचना पर समय देने और प्रोत्साहित करने के लिये आप लोगो का हार्दिक आभार।
Comment by maharshi tripathi on June 3, 2015 at 11:05pm

जीत लिया जग,
बना सिकंदर।
जाते जाते अपने दो क्षण,
विश्व विजेता मुर्दो का,
क्यों छीन रहा क्यों छीन रहा,,,,,,,,इस पंक्ति आपको हार्दिक बधाई आ.VIRENDER VEER MEHTA जी 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:03pm
आद श्याम नारायन जी रचना पर आप के अमूल्य शबदो के लिये दिल से शुक्रीया।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 11:01pm
आद: शिज्जु जी प्रोत्साहन के लिये आपका हार्दिक आभारी हूँ आप लोगो के शब्दो से ही मेरा मनोबल बढ़ता है।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 3, 2015 at 10:58pm
आदरणीय कृष्ण मिश्राजी हौसला अफजाई के लिये आपका हार्दिक आभार।

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