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भगवान की तलाश :लघु कथा: हरि प्रकाश दुबे

“वो देख सामने जहां सूरज निकल रहा है , वहीँ अपना घर है, बेकार में भटका मैं दर –दर, सबने कितना समझाया था, मां - पिता और पत्नी कितना रोई थी, पर मुझे तो भगवान की तलाश करनी थी, पर कहीं नहीं मिला बल्कि लोगों ने कभी भिखारी तो कभी ढोंगी समझा, अरे भगवान् कहीं होगा तो घर में भी मिल जाएगा, अब चल वहीँ काम और ध्यान करेंगे ,चल बेटा अब घर चलें ,तूने भी बड़ा साथ निभाया , वो देख सामने नाव भी आ रही है चल तेज़ चल, और आज ही ये गेरुआ वस्त्र इसी गंगा माँ को समर्पित कर दूंगा !”

“इतना सुनते ही उस साधु का कुत्ता बड़ी जोर से भौंका जैसे उस साधु की बात का समर्थन कर रहा हो , और गंगा किनारे के पंछी आसमान में उड़ गए जैसे उनके लिए मार्ग खाली कर रहें हों !”

दोनों के जीवन में एक नया सवेरा हो चुका था !

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 16, 2015 at 4:15pm

सही सन्देश देती लघु कथा कर्म और भक्ति का गहरा रिश्ता है ...बधाई ...सादर 

Comment by kanta roy on May 16, 2015 at 11:34am
ईश्वर की तलाश करते हुए जीवन के यथार्थ का सामना करता हुआ मन ईश्वर के आस्तित्व को अब जाकर समझ पाया कि काहे तु वन वन फिरे .... हे अभागा , मै तो तेरे अंदर ही निहित हूँ .... जल में थल में जीवन के हर कण कण में तु जहाँ है वही मै हूँ .... यही सत्य बोध गेरूआ का त्याग कराता है । गेरूआ तो वेश है दुसरों को यकीन दिलाने के लिए .... गेरूआ तन पर नहीं मन पर ओढना है .... गेरूआ मन ही ईश्वर के समीप ले जाता है । .... जीवन के बेहद गुढ़ प्रसंग को आपने चंद शब्दों में समेट लिया और इंसान और कुत्ते का आदि मानव काल के सामंजस्य के रिश्ते को भी बखूबी उभारा है । सार्थक संवेदनशील रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 16, 2015 at 11:23am

सुन्दर लघुकथा पर बधाई आदरणीय हरि प्रकाश दुबे सर!

Comment by Shyam Narain Verma on May 16, 2015 at 11:14am
इस अच्छी लघु कथा के लिए बधाई, आदरणीय

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