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बिल्ली सी कविताएँ --- अरुण श्री !

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ !

 

क्योकि -

युद्ध जीत कर लौटा राजा भूल जाता है -

कि अनाथ और विधवाएँ भी हैं उसके युद्ध का परिणाम !

लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब !

एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ !

 

क्योंकि -

नई माँ रसोई खुली छोड़ असमय सो जाती है अक्सर !

कहीं आदत न बन जाए दुधमुहें की भूख भूल जाना !

कच्ची नींद टूट सकती है बर्तनों की आवाज से भी ,

दाईत्वबोध पैदा कर सकता है भूख से रोता हुआ बच्चा !

 

क्योंकि -

आवारा होना यथार्थ तक जाने का एक मार्ग भी है !

‘गर्म हवाएं कितनी गर्म हैं’ ये बंद कमरे नहीं बताते !

प्राचीरों के पार नहीं पहुँचती सड़कों की बदहवास चीखें !

बंद दरवाजे में प्रेम नहीं पलता हमेशा ,

खपरैल से ताकते दिखता है आंगन का पत्थरपन भी !

 

क्योकि -

मैं कई बार शब्दों को चबाकर लहूलुहान कर देता हूँ !

खून टपकती कविताएँ कपड़े उतार ताल ठोकतीं हैं !

स्थापित देव मुझे ख़ारिज करने के नियोजित क्रम में -

अपना सफ़ेद पहनावा सँभालते हैं पहले !

सतर्क होने की स्थान पर सहम जातीं हैं सभ्यताएँ !

पत्ते झड़ने का अर्थ समझा जाता है पेड़ का ठूंठ होना !

 

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ -

विजय-यात्रा पर निकलते राजा का रास्ता काट दें !

जुठार आएं खुली रसोई में रखा दूध , बर्तन गिरा दे !

अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को !

मेरे सामने से गुजरें तो मुँह में अपना बच्चा दबाए हुए !

 .

 .

 .

अरुण श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 11:58am

//मैंने लिखा है कि "एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ" ! ये किसी का नकार नहीं है बल्कि परिस्थिति विशेष में प्राथमिकताओं का निर्धारण मात्र कई किसी शासक के लिए ! //

बहुत खूब ! ’एक समय’ के श्लेषात्मक प्रयोग ने मुग्ध कर दिया. पुनः बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएँ.

Comment by Arun Sri on August 4, 2014 at 10:23am

MAHIMA SHREE जी , दुआ कीजिए कि मैं इसी तरह प्रभावित करता रहूँ आपको , सबको ! धन्यवाद ! :-)))

Comment by Arun Sri on August 4, 2014 at 10:22am

विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी भाई , बहुत-बहुत धन्यवाद आपको ! 

Comment by Arun Sri on August 4, 2014 at 10:21am

Saurabh Pandey सर , आपके इस विस्तृत वार्तालाप ने मुझे ठीक वहीँ पहुंचा दिया जहाँ से मैंने इस कविता को लिखा था ! शायद इसी को कहते होंगे कविता का जी उठाना ! बाकी आपके एक प्रश्न पर कि "क्या कवि राष्ट्रधर्म के इतर चैतन्य होने की बात करता है ?" , मैं बस इतना ही कहूँगा कि चैतन्य होना एकपक्षीय नहीं होता कभी ! तबभी तो मैंने लिखा है कि "एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ" ! ये किसी का नकार नहीं है बल्कि परिस्थिति विशेष में प्राथमिकताओं का निर्धारण मात्र कई किसी शासक के लिए !
कवि के लिए चिंतन का एक नया द्वार खोलने के लिए आपको धन्यवाद ! सादर !

Comment by MAHIMA SHREE on August 3, 2014 at 3:43pm

क्योकि -

मैं कई बार शब्दों को चबाकर लहूलुहान कर देता हूँ !

खून टपकती कविताएँ कपड़े उतार ताल ठोकतीं हैं !

स्थापित देव मुझे ख़ारिज करने के नियोजित क्रम में -

अपना सफ़ेद पहनावा सँभालते हैं पहले !

सतर्क होने की स्थान पर सहम जातीं हैं सभ्यताएँ !

पत्ते झड़ने का अर्थ समझा जाता है पेड़ का ठूंठ होना !

 

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ -

विजय-यात्रा पर निकलते राजा का रास्ता काट दें !

जुठार आएं खुली रसोई में रखा दूध , बर्तन गिरा दे !

अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को !

मेरे सामने से गुजरें तो मुँह में अपना बच्चा दबाए हुए !  गज़ब गजब  हर बार आप चौकते है ..पाठक के रूप में  सम्मोहित  होते हुए भी   सजगता  बनी रहती है क्योंकि हर  बिम्ब झकझोर देती है भीतर तक हर बार  .. हार्दिक बधाई आ.   अरुण  श्री जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2014 at 2:12pm

कोई कविता जब बतियाती है तो संवेदनशील कवि और जागरुक समाज दोनों एक साथ सुनते हैं. यही संवेदना तथा जागरुकता की कसौटी है. पारस्परिक अभिव्यक्तियों का सबसे सुगढ़ पक्ष श्रवण, मनन और तब संप्रेषण है. अन्यथा कविताएँ मात्र बोलती हुई इकाइयों की तरह सामने आती हैं. सुनना अच्छा लगता भी हैं. लेकिन कई संदर्भों में एक पक्षीय व्यवहार बहुत तार्किक नहीं होता. यही कारण है, ऐसी अपारस्परिकता का जीवन-काल भी छोटा होता है. परस्पर बतियाती इकाइयाँ अपने होने का प्रमाण देने में समय जाया नहीं करतीं. वे मान्य तथा सर्वस्वीकृत होती हैं. अतः, उनका जीवन-काल कहीं अधिक होता है. यही इकाइयों के कालजयी होने का कारण भी है.

मैं आपकी इस कविता के सान्निध्य में पिछले हफ़्ते से हूँ. खूब बतियाता रहा हूँ,  खूब सुनी है इससे.. खूब सुनाया है इसे. मुझे भान है कि इस वार्तालाप का क्या महत्व है मेरे पाठक के लिए तो इस कविता के लिए भी.
सही कहूँ, तो  --यह मेरी समझ भर है--  आपकी नितांत वैयक्तिक भावनाएँ अब समष्टि के परिप्रेक्ष्य में आकार पाने लगी हैं. यह शुभ लक्षण है. यहीं से किसी कवि की कविताएँ समूह निर्पेक्ष हो सार्वकालिक रूप से प्रासंगिक होने लगती हैं.  

मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ -
विजय-यात्रा पर निकलते राजा का रास्ता काट दें !
जुठार आएं खुली रसोई में रखा दूध , बर्तन गिरा दे !
अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को !
मेरे सामने से गुजरें तो मुँह में अपना बच्चा दबाए हुए !

यानि, हर तरह की विसंगतियों के विरुद्ध सजग कविता ! विस्फारित नेत्र लिये दायित्वबोध से नत कविता ! अव्यावहारिक उत्साह --अनुबन्धम् क्षयंहिंसाम् अनवेक्ष्य च पौरुषं--  के विरुद्ध कविता ! अमानवीय परिणामों को नकारती कविता !

इस कविता से बतियाने में ही उभरे कुछ विन्दु कवि से साझा करूँ तो प्रस्तुति की कई उपमाएँ जीवित उपमाएँ हैं. हमारे जीये हुए क्षणों और उनमें हुए वार्तालापों का भाग रही हैं. उनका वास्तविक परिणाम सकारात्मक भी हैं, तो नकारात्मक भी. जीये हुए क्षणों के रूप में हमने भोगा है. जैसे -
लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब ! / एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ.  
हम ऐसा कह कर राष्ट्र की अस्मिता को कालिख दे चुके हैं. सन् एकसठ में ! जब हिमालय आग मांग रहा था, नाल गढ़ने के लिए. हम नेपथ्य में आगों पर कड़ाही चढ़ा रहे थे, परेह घोंटने के लिए !


सजग और उदार रहने से क्रमशः दुर्घटनाएँ तथा दुश्मनियाँ परे रहती हैं. लेकिन ऐसी सजगता तथा उदारता सूत्रवत गढ़ी नहीं जा सकती. ये सापेक्ष हुआ करती हैं.  ’हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के बाद का चार दशकीय विलाप एवं कुढ़न क्या सही साबित नहीं करता ?
प्रश्न उठता है, क्या मानवता से बढ़ कर राष्ट्र है ? तो प्रतिप्रश्न है, क्या राष्ट्र में जन और उसके लिए मानववादी भावनाएँ अंतर्निहित नहीं है ? बिना जन और जन-चेतना के राष्ट्र का वज़ूद है भी क्या ? राष्ट्र के होने में मुख्य चार अवयव प्रभावी हुआ करते हैं. उनमें से एक अति-महत्वपूर्ण अवयव जन है. जन के प्रति नकार किसी राष्ट्र या शासक द्वारा ’धोखा’ है, ’ठगी’ है. क्या कवि राष्ट्रधर्म के इतर चैतन्य होने की बात करता है ? क्या यह संभव भी है ? ’ठगी’ को नकारने के फेर में ’भावनात्मक डकैती’ को आह्वान ? यह किस चैतन्य वैचारिकता का पार्श्व-परिणाम है ?
 
अलबत्ता, जिस विन्दु ने झकझोर दिया है वह है - अगोर कर न बैठें अपने मालिक की भी लाश को !
मालिक कोई मानवीय इकाई नहीं है, यह सोच है और किसी नकारात्मक सोच से निजात पाना सचेत समूह की पहली कसौटी होती है. आजतक हम एक राष्ट्र के तौर पर क्या ऐसा कर पाये हैं ? अवश्य नहीं.

बिल्ली का अपने बच्चे को मुँह में दबाये बढ़ना मार्जार भक्ति का अत्यंत प्रचलित बिम्ब है. यह मर्कट भक्ति से नितांत अलग है जहाँ अशक्त, असक्षम अनुयायी भी भी स्व-प्रयास की अपेक्षा होती है.
इस हिसाब से कविता अपने पक्ष रख पाने में अत्यंत सफल है.

भाई अरुण श्री, आपकी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ. लेकिन मैं थोड़ा गंभीर हो गया हूँ. आप पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गयी है. ईश्वर और आपकी नम्रता आपको सफल करें..
शुभ-शुभ
 

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 3, 2014 at 9:37am
आदरणीय अरुण भाई जी! सुंदर रचना। आपके काव्य बिम्ब और उनकी अपील हृदय को छू रहे हैं। यही किसी रचना और रचनाकार की सफलता है। बधाई भाई।
Comment by savitamishra on July 30, 2014 at 11:53pm

गूढता इतनी जल्दी समझ जाते तो कवियों की कतार में हम ना खड़े होते क्या भाई ...असफलता आपकी नहीं हमारी ही समझ कम है जरा

Comment by Arun Sri on July 30, 2014 at 7:41pm

savitamishra जी , अगर कुछ समझ से परे रह गया तो ये संभवतः असफलता हो मेरी ! बहरहाल समय देने के धन्यवाद ! आगे .. प्रस्तुत हूँ ! :-)))))

Comment by Arun Sri on July 30, 2014 at 7:40pm

coontee mukerji मैम , काश कि ये अपशकुन पहचाने भी जा सकें !!!!!!!

धन्यवाद

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