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आओ ! जश्न मनायें …

कभी कभी
जब/ वाणी ,कलम और अनुभूतियाँ
यूँ छिटक जाते हैं
जैसे पहाड़ी बाँध से छूटी
उत्श्रिङ्खल लहरें
बहा ले जाती हैं /अचानक
खुशियाँ /सपने /और जिंदगियाँ …

जब /बदहवास रिश्ते
बहा नहीं पाते
अपनी आँखों और मन से
पीड़ा /स्मृतियाँ
और वो
जो ढह जाता है
ताश के महल की तरह

जब एक हूक उठती है
सीने में /और
भर देती है
अनंत आसमान का
सारा खालीपन
कभी सारा समन्दर
और उसका खारापन

जब जुगलबंदी
साँस और धड़कन की
मन के चौखट पर
सिर पीटने लगती है

जब सहचर आत्मा के
छोड़ जाते हैं साथ
और टूटते हैं भरम
सैलाबों में ढहते मकानों की तरह

जब देवालय /आस्थाओं के मठ
लील जाते हैं
बेहिसाब आशाओं के उत्सव
और बुझ जाते हैं
हजारों बावली श्रद्धा के दीप

जब निर्भय प्रेत
रौंदते हैं मासूमियत
और सहमे हुये से हम
ताकते रहते हैं आसमान

मैं जानता हूँ
तब भी और अब भी
"वो "
रोज जन्म लेता है
तेरे मेरे भीतर
हम गिरा देते हैं उसे
हर बार एक अवांछित
भ्रूण की तरह …

फिर भी करते रहते हैं /प्रतीक्षा
"वो" जन्म लेगा एक दिन
आओ जश्न मनायें
डरे हुये लोगों में
बचे हुए विश्वास का ….

- डॉ.ललित मोहन पन्त
17 .06. 2014
12. 53 रात्रि

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by dr lalit mohan pant on July 9, 2014 at 1:21am

 आ . JAWAHAR LAL SINGH ,Meena Pathak , Dr.Prachi Singh , rajesh kumari , बृजेश नीरज , Saurabh Pandey   सभी विद्वत जन का आभार ... रोज निगाहें ढूँढती थी कि आज कोई प्रतिक्रिया अवश्य पढने को मिलेगी  … जानता हूँ सब्र का फल मीठा होता है  … सौरभ जी की शुरुआत पढ़ कर कुछ देर सांस रुक गई  … अबके तो ५ तारिख होने तक किसी और को पढ़ाने के लिए किस तरह अपने आप को रोक पाया मैं ही जानता हूँ    …     टीम प्रबंधन के चार सदस्यों की प्रतिक्रया एक साथ पढ़कर हर्षित हुआ  … धन्यवाद  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 11:54pm

आदरणीय ललित जी, खेद है इतने विलम्ब से आपकी इस सार्थक और संप्रेष्य़ रचना पर आ पा रहा हूँ.

हृदय से बधाई.

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2014 at 9:53am

बहुत अच्छी रचना! आपको हार्दिक बधाई!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 10:51am

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ---आशा पर हावी  निराशा ...कितु हर बार फिर नयी आशा का जन्म और हम बहे चले जाते हैं इस चक्र में यही तो जिन्दगी है ....शानदार प्रस्तुति ,बहुत बहुत बधाई आ० ललित मोहन पन्त जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 26, 2014 at 2:59pm

आदरणीय डॉ० ललित मोहन पन्त जी 

सही कहा...विषमतम परिस्थितियों में मन में प्रज्वल्लित आस्था विश्वास का दीप जैसे बुझ सा जाता है.... शायद यथार्थ स्वीकार नहीं कर पाता इंसान और बेबसी के कारण कई कई अज्ञान की परतों में ढँक सी जाती है आस्था विश्वास की देवाग्नि 

"वो "
रोज जन्म लेता है 
तेरे मेरे भीतर 
हम गिरा देते हैं उसे 
हर बार एक अवांछित 
भ्रूण की तरह …

फिर भी करते रहते हैं /प्रतीक्षा 
"वो" जन्म लेगा एक दिन 
आओ जश्न मनायें
डरे हुये लोगों में 
बचे हुए विश्वास का …...........बहुत सुन्दर.. बीज रूप में ये बचा विशवास मन की तहों में रहता ही है कहीं ना कहीं 

इस संवेदनशील प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by Meena Pathak on June 21, 2014 at 10:21pm

आओ जश्न मनायें
डरे हुये लोगों में 
बचे हुए विश्वास का …...बहुत खूब //// बधाई | सादर 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 21, 2014 at 1:31pm

गहरी सीख देती रचना! सादर!

Comment by dr lalit mohan pant on June 21, 2014 at 1:54am

MAHIMA SHREE ji dhanywaad protsahan ke liye  ...

Comment by MAHIMA SHREE on June 19, 2014 at 8:01pm

आओ जश्न मनायें
डरे हुये लोगों में
बचे हुए विश्वास का.... बहुत बढ़िया ... बधाई आपको

Comment by dr lalit mohan pant on June 19, 2014 at 11:25am

आ.  coontee mukerji जी  जितेन्द्र 'गीत' जी आपकी प्रतिक्रिया और श्लाघा का आभार  … 

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