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मित्र !
आओ जीवंत बने|
देहधारी चेतना हम
कार्य-कारण को समझ
प्रत्येक क्षण-
स्मित-अधर या
सजल नयन हो
माने
'परम' प्रदत्त है
हर क्षण का सामंत बने|
गत क्षण से
आगत क्षण तक
यूँ गुथ
क्षण मणिमाल आत्म बल जाग्रत करें
कि
अंतर-जलद
संवेदना झर
प्यास हर
उर शांत बने|
आत्म कल्याण करें
क्षण-क्षण लोकहिताय रत
कर्मनिष्ठ जीवन-पर्यंत बने|
मित्र !
आओ जीवंत बने|
प्रमोद श्रीवास्तव, लखनऊ|
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by PRAMOD SRIVASTAVA on April 21, 2014 at 4:34pm

आदरणीय पांडे जी आप का मार्गदर्शन अच्छा लगा | मैं अकसर भोजपुरी में रचना करता हूँ|इसे कहाँ पोस्ट करूँ मुझे नहीं मालूम | कृपया दिशा देने की कृपा करें |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 7, 2014 at 11:59pm

कविता के लिए धन्यवाद, आदरणीय. परन्तु ऐसी सपाटबयानी कितनी कविता बनी रहेगी ? इस पर अवश्य सोचियेगा.

शुभेच्छाएँ.

Comment by vijay nikore on March 31, 2014 at 11:52am

प्रोत्साहन देती रचना अच्छी लगी। बधाई।

Comment by Arun Sri on March 31, 2014 at 11:39am

//हर क्षण का सामंत बने// .......... मानो रणभेरियाँ बज रहीं हों ! युद्धक्षेत्र में विरत खड़े किसी योद्धा के लिए वीर रस की कविता जैसी !

कृपया ध्यान दे...

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