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सत्य की राह

होती है अलग,

अलग, अलग लोगों के लिए.

किसी का श्वेत ,

श्याम होता है किसी के लिए .

श्वेत श्याम के झगड़ें में

जो गुम  होता है

वह होता है सत्य,

सत्य सार्वभौमिक है,

पर सत्य नहीं हो सकता

सामूहिक .

सत्य निजता मांगता है ,

हरेक का सत्य

तय होता है

निज अनुभूति से.

... नीरज कुमार नीर 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on April 3, 2014 at 8:14pm

आदरणीय सौरभ जी इस गुम  हुए "सत्य" पर दृष्टि डालने के लिए बहुत आभारी हूँ ... आपकी टिप्पणी ने बहुत उत्साहित किया है ..बहुत धन्यवाद .. सादर ..

Comment by Neeraj Neer on April 3, 2014 at 8:09pm

हार्दिक आभार आपका आदरणीय विजय निकोरे साहब .. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 4:17pm

आध्यात्मिक हो या व्यावहारिक जीवन की पराकाष्ठा, अनुभूतियाँ ही हैं जो सापेक्ष का भान कराती हैं और अनुभूत को व्यापक होने का माध्यम बनती हैं. सच है, सबका सत्य अलग-अलग होता है. यह वैयक्तिक वृत्तियों के अनुसार परिभाषित होता है. इसी क्रम में अनुभूत को विस्तार भी मिलता है. जितना अनुभव और अनुभवजन्य तार्किकता उसी के अनुरूप मनस का संतुलन ! और, उसी संतुलित मनस के अनुसार अलग-अलग सत्य !
एक परिपक्व रचना के लिए हार्दिक बधाई, भाईजी.
शुभ-शुभ

Comment by vijay nikore on March 30, 2014 at 5:42am

 

आपने सत्य को अच्छा परिभाषित किया है। बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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