For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

धुंए का गुबार : नीरज नीर

मेरी आँखों के सामने

रूका हुआ है

धुएं का एक गुबार 

जिस पर उगी है एक इबारत ,

जिसकी जड़ें

गहरी धंसी हैं

जमीन के अन्दर.

इसमें लिखा है

मेरे देश का भविष्य,

प्रतिफल , इतिहास से कुछ नहीं सीखने का .

उसमे उभर आयें हैं ,

कुछ चित्र,

जिसमे कंप्यूटर के की बोर्ड

चलाने वाले , मोटे चश्मे वाले

युवाओं को

खा जाता है,

एक पोसा हुआ भेड़िया,

लोकतंत्र को कर लेता है ,

अपनी मुठ्ठी में कैद

और फिर फूंक मारकर

उड़ा देता है उसे

राख की तरह

मानो यह कभी था ही नहीं.

बन जाता हैं स्वयं शहंशाह

टेलीविजन पर बहस करने वाले

बड़े-बड़े बुद्धिजीवि

भिड़ा रहे हैं जुगत ,

अपनी सुन्दर बीवियों और

बेटियों को छुपाने की

धुआं धीरे धीरे नीचे उतर कर

आ जाता है जमीन पर,

पत्थर के पटल पर

मोटे मोटे अच्छरों में दर्ज

हो जाता है इतिहास.

मैं अपनी आँखों के सामने

इतिहास बदलते देख रहा हूँ

नीरज कुमार नीर

मौलिक/अप्रकाशित

.....

Views: 703

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 5, 2014 at 9:40am

भाई नीरज नीरजी, आपकी असहजता को मैं समझ सकता हूँ. परन्तु, मुझे आप उन बड़ों की श्रेणी में न ही डालें जो अनायास ही अपने अनुजों के क्रिया-कलापों से भिज्ञ हो जाते हैं और चकित हुआ करते हैं. यह मेरी विवशता ही है कि मैं कई बार रचनाओं पर समय से नहीं आ पाता. लेकिन तनिक मौका मिलते ही रचनाओं से गुजरने का अवसर छोड़ता भी नही. आपने भी ध्यान दिया होगा कि पिछले दो दिनों में मैंने कई रचनाएँ अपनी थोड़ी-बहुत समझ के अनुसार देख डालीं. यह सदा से मेरे लिए ही लाभ और समझ की स्थिति हुआ करती है.



//मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो अगर कुछ भी करता है तो चाहता है उसके शिक्षक या उसके माता पिता उसे देखें एवं स्वाभाविक मानवीय इच्छा होती है कि सराहें //

यह मनोदशा तो कमोबेश हर नये रचनाकार की होती है, घोषित रूप से होती है. क्या यही दशा मेरी नहीं हुई है, जब मेरी ’इकड़ियाँ जेबी से’ आप सुधीजनों के हाथों में गयी है ! आपने मेरी बात को समझा भी होगा.
स्थापित रचनाकार संभवतः संयत हो कर कुछ गंभीर हो जाते हों और उन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सहज हो जाता हो.
शुभ-शुभ

Comment by Neeraj Neer on March 5, 2014 at 9:03am

आपका हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी .... आपका आना और आपकी इस टिपण्णी ने रचना को धन्य कर दिया , मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो अगर कुछ भी करता है तो चाहता है उसके शिक्षक या उसके माता पिता उसे देखें एवं स्वाभाविक मानवीय इच्छा होती है कि सराहें , कई बार ऐसा होता है कि बड़ों का ध्यान बच्चे की क्रिया कलाप के तरफ नहीं जाता , और फिर एक दिन कभी अनायास उनका ध्यान चला जाता है और उसकी सराहना करते हुए कहते हैं कि वाह तुमने तो बड़ा अच्छा काम किया है ..... करीब करीब ऐसी ही मनोदशा मेरी हो गयी है .... इस प्रोत्साहन एवं समर्थन के लिए आपका धन्यवाद व्यक्त करता हूँ ..  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 11:31pm

भाई नीरज नीरजी, इस कविता का सचेत स्वरूप आश्वस्त करता है कि ओबीओ का मंच अत्यंत भाग्यशाली है कि ऐसी कहन से समर्थ रचनाकार सक्रिय हैं.

हमारे प्रशासन, राजनीति या कार्यपालिका की विवशता ही यही है कि वह बलात् लुट सकती हैं. दिशा-दर्शन के लिए उत्तरदायी इन उपक्रमों को इस भूमि का पुरा-इतिहास प्रभावित नहीं करता, न करने दिया जाता है. बल्कि विगत वर्तमान अधिक प्रभावित करता है. इस हेतु सारे वह कर्म होते हैं ताकि ’पुरा’ पर गर्व न हो, बिना इस तथ्य पर विचार किये कि कोई असहज या अनगढ़ परंपरा सहस्राब्दियों नहीं चला करतीं.

खैर यह तो हुई सत्ता-तंत्र की बात. वस्तुतः आपकी कविता यहाँ से प्रारम्भ होती है. और क्या खूब विवेचना करती हुई चलती है.

उसमे उभर आयें हैं ,
कुछ चित्र,
जिसमे कंप्यूटर के की बोर्ड
चलाने वाले , मोटे चश्मे वाले
युवाओं को
खा जाता है,
एक पोसा हुआ भेड़िया,
लोकतंत्र को कर लेता है ,
अपनी मुठ्ठी में कैद
और फिर फूंक मारकर
उड़ा देता है उसे
राख की तरह
मानो यह कभी था ही नहीं.

बहुत खूब ! इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष मैंने उपरोक्त बातें कही हैं.
या फिर,

टेलीविजन पर बहस करने वाले
बड़े-बड़े बुद्धिजीवि
भिड़ा रहे हैं जुगत ,
अपनी सुन्दर बीवियों और
बेटियों को छुपाने की

आपकी चेतन-प्रभा को मेरा पाठक न केवल स्वीकार करता है बल्कि इस कविता के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को सस्वर भी पाता है.
हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ

Comment by Neeraj Neer on February 17, 2014 at 9:06am

आदरणीय अनिल कुमार अलीन जी आपका हार्दिक आभार ...   

Comment by अनिल कुमार 'अलीन' on February 16, 2014 at 9:47pm

एक कड़वा सच.............. काव्य के माध्यम से सुन्दर प्रस्तुतीकरण,..............................बहुत खूब.......... 

Comment by Neeraj Neer on February 15, 2014 at 5:34pm

आपका आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्र जी , जिस हेतू बीवियों का प्रयोग किया है उसी हेतु बेटी का प्रयोग किया है , चूँकि जब अराजकता होती है तो सबसे ज्यादा भुगतना बेटियों एवं बहनों को ही पड़ता है ... वे बलात अपहृत की जाती है एवं आगे सर्व विदित है , आज जो बांग्लादेश में हो रहा है , पाकिस्तान में हो रहा है , आजादी के वक्त जो हुआ...  यह पूरी रचना को उस ददृष्टिकोण से ही रची गयी है , बाकि कितना सफल या असफल हुआ हूँ यह तो आप बेहतर बताएँगे ... 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 15, 2014 at 10:22am

बहुत ही उत्क्रिस्ट रचना ..भाई नीरज जी ..

बड़े-बड़े बुद्धिजीवि

भिड़ा रहे हैं जुगत ,

अपनी सुन्दर बीवियों और

बेटियों को छुपाने की

धुआं धीरे धीरे नीचे उतर कर

आ जाता है जमीन पर,

पत्थर के पटल पर...इन पंक्तियों को समझ नहीं पाया .बेटियों का प्रयोग किस लिए किया गया है ..कृपया मार्गदर्ष करने का कष्ट करें सादर 

Comment by Neeraj Neer on February 15, 2014 at 9:18am

आदरणीय भाई जीतेन्द्र गीत जी आपका आभार. 

Comment by Neeraj Neer on February 15, 2014 at 9:18am

आ शिज्जू शकूर जी हार्दिक धन्यवाद. 

Comment by Neeraj Neer on February 15, 2014 at 9:17am

आदरणीय वंदना जी रचना को गहराई से समझने वाम प्रोत्साहित करने के लिए आपका आभार.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service