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दायरा...

       सोच का,

       मन की उड़ान के

       परिचित आसमान का,

       अंतर्भावनाओं के विस्तार का,

       अनुभूतियों के सुदूर क्षितिज का,

समयानुरूप

स्वतः विस्तारित हो, तो कैसे ?

 

तन मन बुद्धि अहंकार की

लोचदार चारदीवारी मैं कैद...

संकुचन के बल-प्रतिबल

से संघर्षरत,

होता क्लिष्ट से क्लिष्टतर

जटिल से दुर्भेद फिर अभेद

कर्कश कट्टर असह्य  

 

आखिर

कौन सचेत, पहचानता है ये दायरा ?

       पहले अपना 

       फिर दूसरों का..

कौन निर्भय, तोड़ता है ये दायरा ?

       पहले अपना 

       फिर दूसरों का..

कौन उन्मुक्त, करता है आज़ाद ?

       अंतर बद्ध पंछी को

       पिंजर से-

       असीम आकाश में

       उड़ जाने के लिए...

 

क्या प्रियतम तुम?

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment

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Comment by Sarita Bhatia on February 12, 2014 at 4:27pm

दायरा यह सोच का मन का 

अहा 

क्या बात कही प्राची जी 

Comment by shashi purwar on February 11, 2014 at 10:27pm

सुन्दर रचना है प्राची जी , दायरा यह सोच का मन का। …। यही निर्भर करता  है व्यक्तिव की रूप रेखा ……… सुन्दर अभिव्यक्ति हार्दिक बधाई

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 11, 2014 at 7:45pm

आदरणीया दीदीजी, आपके विभिन्न अभिनव प्रयोग शिल्प एवं भाव दोनो के दृष्टिकोण से सदैव अनुकरणीय रहा है । प्रस्तुत रचना इसी संबंल की एक कडी है । आपके पैनी नजर समाज के संकीर्ण मानसीकता पर एक वाजिब प्रश्न चिन्ह खडा करता है । इस प्रस्तुति पर नमन सह बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 11, 2014 at 7:29pm

आदरणीया डॉ प्राची जी बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:42pm

सुंदर रचना आदरनीय प्राची दीदी. बधाई.

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