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भावों के विहंगम

तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से

ऐ परिंदे!

हिलोर आ जाती है

स्थिर,अमूर्त सैलाब में

और...

छलक जाता है 

चर्म-चक्षुओं के किनारों से

अनायास ही कुछ नीर.

हवा दे जाते हैं कभी

ये पर तुम्हारे

आनन्द के उत्साह-रंजित

ओजमय अंगार को,

उतर आती है

मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,

अमृत की तरह.

विखरते हैं जब

सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग,

तेरे आ बैठने से.

चेतना फूंकती है सुगंधी

जड़, जीर्ण और...अचेतन में.

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है.

-विन्दु

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by अरुन 'अनन्त' on February 10, 2014 at 1:50pm

आदरणीया वंदना जी बहुत ही गहन मार्मिक अभिव्यक्ति आपको बहुत बहुत बधाई कुछ टाइपिंग त्रुटियाँ उन्हें ठीक कर लीजिये.

Comment by Shyam Narain Verma on February 10, 2014 at 1:28pm
आपकी इस सुंदर प्रस्तुति पर सादर बधाई..

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