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कुण्डलिया [सरिता भाटिया]

डरना कैसा मौत से, यह तो सच्ची यार
धोखा देती जिन्दगी , मौत निभाए प्यार /
मौत निभाए प्यार , साथ है लेकर जाती
सबक जिंदगी रोज, नया हमको सिखलाती
नेक मौत का काम, सबकी पीर को हरना
सरिता कहे पुकार, मत तुम मौत से डरना //

.....................................................

................मौलिक व प्रकाशित ...........

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Comment by Sarita Bhatia on February 7, 2014 at 5:46pm

आदरणीय नीरज मिश्रा जी हार्दिक आभार आपने रचना का इतना अच्छा विश्लेषण किया 

Comment by Sarita Bhatia on February 7, 2014 at 5:46pm

सही कहा कुंती दीदी 

Comment by Sarita Bhatia on February 7, 2014 at 5:45pm

आदरणीय श्याम जी शुक्रिया 

Comment by Neeraj Nishchal on February 7, 2014 at 4:22pm

जाने किस खुमारी में ये खता कर ली ,
ज़िन्दगी मांगकर मौत मांग ली मैंने ।

पहली बात जब मौत का डर नहीं तो शोर क्या मचाना
जो है ही नही उसकी बात ही क्या करनी ,ये तो केवल अपने
आपको समझा लेने की एक नाकाम सी कोशिश हो रही है
और दूसरी बात मौत तो ज़िन्दगी के साथ ऐसे है जैसे एक सिक्के के
दो पहलू एक दरिया के दो किनारे दोनों को आप अलग नही कर सकते नज़र ऐसी होनी चाहिए कि
दोनों को एक साथ देखा जाना चाहिए पर हम देखते हैं दोनों
को अलग अलग , इसलिए ही तो है ज़िन्दगी और मौत के बीच इतना संघर्ष ।

आपकी इस सुन्दर सी कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई प्रेषित है ।

Comment by coontee mukerji on February 7, 2014 at 3:23pm

बात सच है सरिता जी, जिस बात से हम जितना डरते हैं वही बात हमें ज्यादा डराती है......अगर देखा जय तो  मौत  जिंदगी का अंत नहीं बल्कि एक सफ़र  का अंत और दूसरे की शुरूआत है. आपकी अच्छी रचना के लिये साधुवाद.

Comment by Shyam Narain Verma on February 7, 2014 at 10:42am
शानदार रचना आदरणीया बहुत२ बधाई ......

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