मंदरा मुंडा के घर में है फाका,
गाँव में नहीं हुई है बारिश,
पड़ा है अकाल.
जंगल जाने पर
सरकार ने लगा दी है रोक ,
जंगल, जहाँ मंदरा पैदा हुआ,
जहाँ बसती है,
उसके पूर्वजों की आत्मा.
भूख विवेक हर लेता है.
उसके बेटों में है छटपटाहट.
एक बेटा बन जाता है नक्सली.
रहता है जंगलों में.
वसूलता है लेवी.
दुसरे को कराता है भरती
पुलिस में.
बड़े साहब को ठोक कर आया है सलामी
चांदी के बूट से .
चुनाव आने पर,
नक्सली बेटा वोट करता है मैनेज
चुनाव के बाद नेता
बन जाता है मंत्री.
गाँव में बुलाता है पुलिस
होते हैं दोनों भाई
आमने सामने.
अपनी अपनी बन्दूको के साथ
गिरती है लाश
मरता है लोक तंत्र
इस लाश को मत ओढाओ तिरंगा.
ढको इसे सफ़ेद चादर से,
रंग तो प्रतीक होता है,
ख़ुशी और हर्ष का.
मदरा मुंडा के घर में पड़ा है शोक.
फिर पड़ा है फाका,
जंगल जाने पर
अभी भी है रोक.
.. नीरज कुमार नीर ..
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी , आपका मेरी इस पोस्ट पर आना और कविता को सराहना इस कविता को सार्थक कर गया .. बहुत धन्यवाद आपका ..
जंगल की आग बहुत तेज़ फैलती है. और, इस आग की धौंक तो उससे भी तेज़ हुआ करती है. लेकिन जंगलों में आग अक्सर यों ही नहीं लगा करती. बल्कि दो सूखी डालों में रगड़ बनती है कारण इस आग की. इन्हीं सूखी डालों के जीवन संघर्ष को स्वर मिला है इस रचना में. यहाँ पेट का जंगल जल रहा है. मंदरा मुंडा की दोनों शाखायें रगड़ खाने को बाध्य हुई हैं.
इस लाश को मत ओढाओ तिरंगा.
ढको इसे सफ़ेद चादर से,
रंग तो प्रतीक होता है,
ख़ुशी और हर्ष का.
मदरा मुंडा के घर में पड़ा है शोक.
सफ़ेद और रंग के बिम्बों से कविता ने भावुक कर दिया. इस गहरायी से पंक्तियों को शब्दबद्ध करना कविता को बहुत अर्थवान कर रहा है.
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई नीरज भाई.
आदरणीया डॉ प्राची सिंह साहिबा विषय वस्तु को गहराई से समझने एवं समर्थन देकर प्रोत्साहित करने के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ ...
आपका हार्दिक आभार आदरणीय भाई अरुण शर्मा अनंत जी ..
आकाल की विभीषिका और सरकारी तंत्र की वन आरक्षण नीतियां..... कैसे बेबसी को नक्सलियत में तब्दील कर देती हैं. संवेदनाओं को झिंझोड़ने वाला एक बहुत ही उद्वेलित करता सा शब्द चित्र उकेरती इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आ० नीरक कुमार 'नीर' जी
मुफलिसी और मज़बूरी इंसान से क्या क्या करवा लेती है ऐसी बेबसी का सुन्दर चित्रण बहुत बहुत बधाई आपको नीरज भाई
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