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हिंदी को रोजगार परख बनाने की जरूरत - रमेश यादव

मुलाकात -            हिंदी को रोजगार परख बनाने की जरूरत

( डॉ. वेद प्रकाश दुबे, संयुक्त निदेशक ( राजभाषा ) भारत सरकार, वित्त मंत्रालय से बातचीत )

 

मोबाइल की घंटी बजी, देखा, तो मेरे मित्र और आई.डी.बी.आई. बैंक के सहायक महाप्रबंधक डॉ. आर. पी.सिंह “ नाहर” जी फोन पर थे. आवाज आई , “ रमेश जी हिंदी और राजभाषा को लेकर आप काम रहे हैं, इस समय डॉ. वेद प्रकाश दुबे जी नीरिक्षण कार्य हेतु मुंबई में आए हैं जो भारत सरकार वित्त मंत्रालय के संयुक्त निदेशक ( राजभाषा ) हैं, अगर समय निकाल पाएं तो मुलाकात हो सकती है.” पूर्व निर्धारित  व्यस्तता के बावजूद मैं इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाना चाहता था. समय तय हुआ, और रिहर्सल खत्म करके मैं अरविंद लेखराज, पांडुरंग ठाकरे अपने इन दो साथियों के साथ रात आठ बजे हॉटेल ताजमहल की चौथी मंजिल पर पहुंचा. एक बड़े ही जिंदादिल और पारदर्शी व्यक्तित्व के धनी डॉ. दुबेजी जो स्वयं एक लेखक हैं और उनकी आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, हमारे स्वागत के लिए खड़े थे. उनका यह लेखन कार्य आज भी जारी है. उनसे मिलकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई. इस दौरान उनसे हिंदी साहित्य, राजभाषा कार्यान्वयन और सरकारी व्यवस्था को लेकर जो बातें हुई उसका ब्यौरा आप सुधी पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है –

रमेश –    भाई साहब आप इतने बड़े अधिकारी हैं और साहित्यकार भी हैं, यह हमारे लिए गौरव की बात

          है, आज के इस दौर में आप हिंदी साहित्य के बारे में क्या सोचते हैं ?

डॉ. दुबेजी – हिंदी साहित्य अपने आपमें सृजनात्मक धारा है, चिंतन की दिशा है, इसमें बौध्दिकवाद है.

          हमारे लेखन में वैश्विक मूल्यों के साथ – साथ मानवीय मूल्यों का जतन किया जाता है,  

          इसीलिए सर्वसमावेशी है. यहां आपको नौ रसों की खान मिलेगी. इसकी एक बृहद परंपरा है.

          वैसे साहित्य साधना का काम है, हमें लगातार साधनारत रहना चाहिए.    

रमेश –    बावजूद इसके हिंदी साहित्य को वो दर्जा नहीं मिल पा रहा है, जिसका वो हकदार हैं. हमारा

          साहित्यकार आज भी उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर है. इस बारे में व्यवस्था की क्या

          भूमिका है ?

डॉ. दुबेजी – धुमिल, प्रेमचंद, निराला जैसे कई साहित्यकारों को जीते जी वो सम्मान नहीं मिला, जिसके

          वो हकदार थे, बाद में मिला. मैं इस बात का समर्थक हूँ कि साहित्यकारों को जीते जी

          सम्मान मिलना चाहिए जैसे विदेशों में होता है. मगर इसके लिए साहित्यकार भी कहीं ना

          कही जिम्मेदार हैं. आपसी खेमेबाजी भी एक कार्ण है. हिंदी साहित्य तमाम कसौटियों को पार

         करते हुए आज अपने शिखर पर है, इसमें कोई दो राय नहीं है. बादलों के घिर जाने से अंधेरा

         जरूर महसूस होता है, पर हम भूल जाते हैं कि बादलों के पीछे सूरज छिपा है और कुछ देर   

         बाद फिर प्रकाश होगा. हमारे देश में कुछ इसी तरह की स्थिति है. पर हमें उजाले का इंतजार

         करना होगा. व्यवस्था अपनी तरह से साहित्य को प्रोत्साहन देने का काम कर रही है, मौलिक

         लेखन के लिए आज लाखों रुपयों के पुरस्कार दिए जा रहे हैं, पर बदकिस्मती से तमाम  

         योजनाएं लोगों तक पहुंच नहीं पा रही हैं. सभी मंत्रालयों और सरकारी उपक्रमों द्वारा पुस्तकें

         खरीदने की योजना है. कई साहित्य अकादमियां, और हिंदी प्रचार प्रसार इकाईयां देश में

         कार्यरत हैं, उनकी अपनी योजनाएं हैं. पुस्तक प्रकाशन के लिए अनुदान दिया जाता है, अनुवाद

         के माध्यम से भी खूब काम हो रहा है. अब गंभीर मसला यह भी है कि कई विधाओं मे

         इन पुरस्कार के लिए प्रविष्ठियां ही प्राप्त नहीं होती.

 रमेश –    इतने प्रतिभावान साहित्यकारों के इतने बड़े देश में पुरस्कार के लिए प्रविष्ठियां नहीं आती

          यह कैसे संभव है सर ? जरा विस्तार से बताएं.

 डॉ. दुबेजी –  यह हकीकत है भाई . हमारी व्यवस्था तकनीकी, विधी, आर्थिक, ज्ञान - विज्ञान ,

            समुद्रशास्त्र, अंतरिक्ष, भूगर्भ, जैविक, पर्यावरण, पुरातत्व इत्यादि शास्त्रों पर मौलिक लेखन

           चाहती है, ताकि इस विधा में हमारा साहित्य समृध्द हो सके. भाषा की उन्नति के लिए

           यह आवश्यक है. पर इन विषयों पर लिखनेवाले लेखकों की संख्या कम है. अन्य विधाओं

           के लिए देश में साहित्य अकादमियां अपनी भूमिकाएं निभा रही हैं. सरकारी प्रकाशन विभाग

           है, कई सचिवालय हैं जो देश में घूम – घूमकर वर्कशॉप आयोजित करते हैं. इस बात में

           सच्चाई जरूर है कि अधिकांश गतिविधियां आम जनता तक नहीं पहुंच पाती हैं, पर अब

           हम जैसे साहित्य प्रेमी इस बात की खोज खबर ले रहे हैं, और आवश्यक सुधार लाने की

           कोशिश में लगातार लगे हुए हैं. लेखनी जबतक लोगों की जरूरतों की कसौटी पर खरी नहीं

           उतरेगी तबतक लोग इसे स्वीकार नहीं करेंगे.    

रमेश -     तकनीकी विषयों के अलावा अन्य साहित्य विधाओं का भी व्यापक तरीके से समावेश इन

          योजनाओं में किया जाना चाहिए, क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

डॉ. दुबेजी – जी बिल्कुल किया जाना चाहिए. मगर आप साहित्यकारों को कुछ सुझाव देना होगा. इसका

           हमेशा स्वागत किया जाता है. अब पहलेवाली स्थिति नहीं रही, आप लोगों के सुझावों की

           अब तुरंत दखल ली जाती है और जो योग्य एवं सर्वसमावेशी है उसे तुरंत स्वीकार भी कर

           लिया जाता है. आप लोग अपना सुझाव दें, स्वागत है.

रमेश –      हिंदी रोजगार परख या रोजी – रोटी की भाषा नहीं हैं, इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?

डॉ. दुबेजी –  नहीं, पूरी तरह से मैं इस बात से सहमत नहीं तो हूँ. हिंदी आज विश्व की भाषा बन चुकी

           है. सोच और लेखन में कुछ बदलाव की आवश्यकता है. हां, हिंदी के क्षेत्र में नौकरियों का

           इजाफा होना चाहिए इस बात से मैं सहमत हूँ. इसके लिए प्रयास आरंभ हो चुका है. आज

           की पीढ़ी भले ही अंग्रेजी में पढ़ रही है, पर उसे अपनी हिंदी पर गर्व है, अपनी भाषाओं पर

           वह प्रेम करती है. मोबाइल, कम्प्युटर, इंटरनेट पर आज लगभग सभी भारतीय भाषाओं में

           काम करने की सुविधा उपलब्ध है. आज विदेशी कंपनियां अपने उत्पादन के प्रचार के लिए

           हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग कर रही हैं. उड़ानें वही नहीं भरते जिनके पंखों

           में बल है, उड़ाने वे भी भर सकते हैं, जिनके सपनों में बल है. हमारे सपनों में भी बल

          होना चाहिए. वैसे सभी सरकारी बैंको और उपक्रमों में भारतीय भाषाओं में काम करने का

          निर्देश जारी किया गया है. आप कलमकारों द्वारा और सुझावों की हमें अपेक्षा है.

रमेश –    सरकारी, अर्धसरकरी, और सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों में कार्यरत ऐसे कई कर्मचारी हैं जो,

         अपनी नौकरी के साथ - साथ साहित्य की भी सेवा कर रहे हैं और अपनी पहचान भी बना

         चुके हैं ऐसे कर्मचारियों के प्रोत्साहन और प्रमोशन के लिए व्यवस्था के पास क्या योजनाएं हैं,

         जैसे कि स्पोर्ट्समॅन कर्मचारियों के लिए हैं ? क्या ऐसे साहित्यकारों का योगदान देश निर्माण

         का कार्य नहीं है ?

डॉ. दुबेजी – आपके इस सोच की मैं कद्र करता हूँ और अपने मंत्रालय तथा संसदीय राजभाषा समिति में

          इस बात को जरूर उठाऊंगा. बतौर सुझाव मैं इसे लिखित रूप में चाहता हूँ. कला, साहित्य,

          संस्कृति से जुड़े कर्मचारियों के लिए ठोस प्रोत्साहन की योजना जरूर होनी चाहिए. रोजगार

          के प्राप्ति की भी व्यवस्था होनी चाहिए, मैं इसका समर्थक हूँ. मैं ही कभी सरकारी कर्मचारी

          था. बतौर हिदी अधिकारी अपनी सेवाएं मैंने देश के दक्षिणी प्रदेश से शुरू की और आज दावे

          के साथ कह सकता हूँ कि गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी प्रोत्साहन का काम अधिक हो रहा है. वे

          लोग बड़ी रूचि से काम कर रहे हैं.

रमेश –    निजी प्रकाशक लेखकों का शोषण करते हैं, क्या सरकारी यंत्रणाओं द्वारा इसे नियंत्रित नहीं

          किया जा सकता है ?

डॉ. दुबेजी –  जी बिलकुल सत्य है, इसके लिए भी साहित्यकारों को पहल करनी पड़ेगी. आपसी भेद- भाव

           भुलाकर उन्हें एकता का अलख जगाना होगा. ऐसा भी तो हो सकता है कि सहकारिता के

           आधार पर कुछ लेखक संघ की स्थापना करें और पुस्तक प्रकाशित करके उसकी मार्केटिंग

           करें. विदेशों में ऐसी व्यवस्थाएं काम कर रही हैं. इतना त्याग तो प्रारंभ में कुछ लोगों को

           करना ही होगा. तब देखो प्रकाशक कैसे लेखकों के पीछे पड़ जाएंगे.

रमेश –    क्या आज हमारे देश में प्रतिभावान लेखकों की कमी है ? सूर, मीरा, तुलसी, कबीर जैसे

          रचनाकार क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं ?

डॉ. दुबेजी –  नहीं ऐसी बात नहीं है. प्रतिभावानों की कमी नहीं है. गीत , संगीत को लेकर टेलीविजन पर

         जैसे टॅलेन्ट सर्च किया जा रहा है, उसी तर्ज पर साहित्यकारों की भी खोज की जानी चाहिए.

         हजारों की संख्या में प्रतिभावान साहित्यकार मिलेंगे. जरूरत है पहल की. इसे भी मैं सुझाव के

         तहत स्वीकार करता हूँ.

डॉ. आर.पी.सिंह – भारतीय परिप्रेक्ष्य में राजभाषा को आप किस तरह से देख रहे हैं ?

डॉ. दुबेजी –   राजभाषा के प्रति मेरी पूरी अस्था है. राजभाषा अधिकारी अकेला नहीं है, बल्कि उसके

            साथ पूरी व्यवस्था है. जंगल में एक शेर ही तो काफी होता है दहाड़ लगाने के लिए.

            अंग्रेजी दां से टक्कर लेते हुए वह अपनी भूमिका को बखुबी अंजाम दे रहा है. आज के दौर

            का वह स्वतंत्रता सेनानी है ऐसा मेरा मनना है. वह हिंदी अधिकारी नहीं, बल्कि राजभाषा

            सर्जक है और चिंतक है. राजभाषा विभाग की तेजस्विता अब बढ़ रही है. कई बैंक और

            सरकारी उपक्रम हिंदी साहित्य और कामकाज को लेकर पत्रिकाएं निकाल रही हैं. इस क्षेत्र

            में रोजगार के और भी संभावनाएं हैं. राजभाषा प्रयोग, आपसी संवाद और सार्थक दिशा में

            पहल यह राजभाषा विभाग का मंत्र होना चाहिए. हिंदी के प्रयोग के आँकड़ात्मक पहलू की

            बजाय गुणात्मक पहलू पर गौर किया जाना चाहिए, यह सुझाव विचाराधीन है. हिंदी के

            साथ- साथ अब भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार पर भी बल दिया जाना चाहिए. हिंदी

           दिवस मनाने का अपना औचित्य है. कई तरह के दिवस मनाए जा रहे हैं, फिर हिंदी दिवस

           क्यों नहीं ? यह गरिमा का विषय है. हमें अपनी भाषा के प्रचार को देश के अंतिम आदमी

           तक पहुंचाना चाहिए. लोग मिलकर काम करेंगे तो सफलता जरूर मिलेगी. चले हैं तो सफर

           कट ही जाएगा आहिस्ता- आहिस्ता. इसीलिए हिंदी सर्जकों,चिंतकों को मैं कहना चाहता हूं    

            कि –     तुमसे दिल की बात करना अच्छा लगता है,

                     सुख- दुख दोनों साथ निभाना अच्छा लगता है,

                     तूफानों से लड़कर इस धरती की दूरी नापे

                     ऐसे सूरज पे इतराना अच्छा लगता है.

 

प्रस्तुति -  रमेश यादव ( लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार )

        481/161- विनायक वासुदेव

        एन.एम.जोशी मार्ग.  चिंचपोकली ( पश्चिम )

        मुंबई – 400011, फोन - 9820759088

        Email –rameshyadav0910@yahoo.com

रचना मौलिक एवं अप्रकाशित है. 

 

         

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on January 25, 2014 at 10:23am

 आदरणीय रमेश जी बहुत बढ़िया आलेख , परम आदरणीय डॉ वेद प्रकाश दुबे के साथ लिए गए साक्षात्कार मे कई तथ्य सामने आए । उनका कहना कि साहित्यकारों को मिल कर अलख जगनी होगी , ये बिलकुल सही है अन्यथा आज ' हिंगोली ' का डंका बड़े ज़ोर पर है सभी इस ' हिंगोली ' से संतुष्ट भी है । हिन्दी भाषी को बड़ी हेयता से देखते है ये हिंगोली सेवन करने वाले लोग । आपको बहुत बहुत शुभ कामनाएँ एवं बधाई । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 24, 2014 at 10:32pm

आदरणीय रमेश भाईजी, आपका साक्षात्कार कई-कई तथ्य उजागर कर रह अहै और आपके प्रश्न सर्वसमाही भी हैं. आदरणीय दुबेजी के उत्तर यथासंभव संतुष्ट करते हुए हैं. यह अवश्य है कि उन्होंने अपनी सीमा में सारे उत्तर दिये हैं और कई पहलुओं को डिप्लोमेसी के तकाज़े में बचा ले गये हैं. किन्तु ऐसा करना भी पाठक को अखरता नहीं बल्कि एक सकारात्मक लिहाज की तरह सामने आया है.

यह अवश्य है कि कई जगहों पर हुई टंकण त्रुटियाँ खलल डालती हैं. हो सकता है कि यह अनायास हुआ हो लेकिन इसके प्रति सचेत रहना उचित होता.
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