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ज़िन्दगी तो रोज़ गम ही बाँटती है ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     2122      2122

जब उजाला चाहते थे सब दिये से

क्यों अँधेरा बंट रहा है हाशिये से

 

था क्षणिक उन्माद मैं ये मान भी लूँ

मूँद लोगे आँखें क्या अपने किये से ?


बोझ से कोई गिरा, कोई नशे में  

फर्क मुश्किल है, पिये का बेपिये से


ज़िंदगी तो रोज़ आँसू बाँटती है

हम चुराते हैं हँसी हर वाक़िये से


ये इलाज -ए- जख्म कैसा हो रहा है

क्यों ज़ियादा दर्द होता है, सिये से


हाँ ग़ज़ल कहने की कोशिश है मेरी भी 
डर मगर लगता है  ऐसे  काफिये से

 

      **************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

Views: 794

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 23, 2013 at 5:43pm

आदरणीय सौरभ भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति से आनन्दित हूँ , उत्साह वर्धन के लिये आपका शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 23, 2013 at 5:41pm

आदरणीय वीनस भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , गलतियाँ बताने के लिये । मतले मे सुधार करने से पूरी गज़ल मे सुधार करना पड़ेगा , अतः पूरी गज़ल संशोधन मे डाल रहा हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 23, 2013 at 5:39pm

आदरनीया प्राची जी , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 19, 2013 at 1:13am

बहुत कुछ कहा गया है .. चर्चा के ठोसपन पर मैं मुग्ध हूँ.

दिल से बधाई इस प्रयास पर, आदरणीय ..

Comment by वीनस केसरी on December 17, 2013 at 3:35am

बेहद शानदार शेर है ... मजा आ गया ... वाह वा क्या कहने ...

ज़िन्दगी  तो रोज़ गम  ही बाँटती है

हम ही हँस लेते हैं हर इक वाक़िये में ... बस मिसरा उला में ही शब्द भर्ती का है

इसके मुकाबले ग़ज़ल के बाकी अशआर हल्के हैं ... ग़ज़ल और समय मांग रही है
मतले का उला रदीफ़ को बिलकुल नहीं निभा सका
हम  उजाला चाहते थे  हर दिये में
वाक्य यूँ सही होता
हम  उजाला चाहते थे हर दिये से

आज जीने दो मुझे हर लम्हा लम्हा ..... दूसरा लम्हा भर्ती का है हर लम्हा कहने से बात पूरी हो जाती है अथवा हर की जगह तुम कर लीजिये  
जब उर्दू अल्फाज़ पर इतना ध्यान रखते हैं तो ग़ज़ल में ज्यादा न बाँध कर ज़ियादा बांधना उचित होगा .. यहाँ बहर की भी दिक्कत नहीं थी

निलेश जी की इस्लाह दुरुस्त लगी ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 13, 2013 at 9:04am

आपकी प्रस्तुतियों का कथ्य मुझे हमेशा प्रभावित करता है..

इस ग़ज़ल के अशआर भी पसंद आये ..हार्दिक बधाई 

एक दो जगह कुछ संशय है ..

कोई  बोझे से गिरे थे कुछ नशे से.........................यहाँ कहन मुझे कुछ स्पष्ट नहीं लग रहा है 

फर्क  मुश्किल था पिये या बे पिये में

 

ज़िन्दगी  तो रोज़ गम  ही बाँटती है

हम ही हँस लेते हैं हर इक वाक़िये में............क्या हैं को गिरा कर लघु की तरह पढ़ा जा सकता है , मुझे संशय है, कृपया निवारण करें

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 11, 2013 at 4:54pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार !!!!!

Comment by vijay nikore on December 11, 2013 at 7:39am

//ज़िन्दगी  तो रोज़ गम  ही बाँटती है

हम ही हँस लेते हैं हर इक वाक़िये में//  .... बहुत खूब !

 

बहुत लुत्फ़ आया आपकी गज़ल को पढ़ कर...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2013 at 4:11pm

आदरणीय नीलेश भाई , आपकी सलाह सही है , बोझ से कोई गिरा कोई नशे से , मिसरा स्वीकार करता हूँ !!!! बाक़ी बात रस कम होने की तो हमेशा एक जैसा मज़ा ला पाना मुश्किल काम होता है , प्रयास तो यही रहता है कुछ आप लोगों तक अच्छी बात पहुँचा सकूँ !!!  खैर अगली गज़ल मे फिर प्रयास करूंगा !!!!! // कृपया अन्यथा न लें //  ये आप मेरी रचना मे न लिखा करें , आपको विश्वास दिलाता हूँ मै कभी अन्यथा नही लूंगा !!!!! मै बस सीखता हूँ , जहाँ से भी सीख मिले !!!! आपका हार्दिक आभार !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2013 at 3:44pm

आदरणीय नीरज नीर भाई , गज़ल पर आके मेरा उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ !!!!!

कृपया ध्यान दे...

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