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देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम 

और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'

-जिसे पहचानते हो तुम !

उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा 

एक अभिन्न को-

खामोश मन मंथन की गहराइयों में 

चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में 

पराचेतन की दिव्यता में.....

पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'

क्या पहचान भी पाओगे 

अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-

एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment by Amod Kumar Srivastava on November 13, 2013 at 10:05pm

उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा ...... बहुत सुंदर रचना बधाई स्वीकार करें ... आ0 प्राची जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 13, 2013 at 9:26pm

अपने ’स्व’ को बूझ लेने का प्रक्रम सनातन है. यह देही साधन मात्र है जिसकी संज्ञा ’मैं’ या ’तुम’ से इंगित होती रही है.
यदि श्री मद्भग्वद्गीता के अनुसार ’..अस्थिता जनकादयः’ को मानक माना जाय तो सांसारिक कर्म को अन्यथा समझने की भूल होगी ही नहीं. उच्च सचेतावस्था का अर्थ ही है कि एक हाथ से तात्विकबोध की पराकाष्टा का टटोलना हो तो दूसरे हाथ से सांसारिकता के गूढ़तम को साधना हो. कविता के मुख्य पात्र का ढंग ऐसा ही होने से मन आश्वस्त हुआ है.
शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 8:27pm

रचना में सन्निहित कथ्य आपको पसंद आया ..आपकी आभारी हूँ आ० शिवराम सिंह जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 8:25pm

अचना के भावदशा सम्प्रेषण पर आश्वस्त करते आपके अनुमोदन के लिए सादर आभार आ० अरुण निगम जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 8:10pm

रचना के भावों पर आपके अनुमोदन के लिए आभार आ० जितेन्द्र जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 8:03pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

इस अभिव्यक्ति की भाव परिधि में कुछ पल ठहरने के लिए आपका धन्यवाद 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 8:01pm

अभिव्यक्ति पर आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद प्रिय गीतिका जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 7:40pm

आदरणीय शरदिंदु जी 

प्रस्तुति की भाव दशा को गहनता से महसूस करने का आपका प्रयास...नत करता है. बहुत बहुत धन्यवाद.

रचना को स्पष्ट करने के क्रम में और यही कहना चाहूंगी कि आबद्ध चिरमुक्त 'तुम' तो आनंदस्वरुप है...उसका सिसकना कैसा....वो तो बस स्थित है अपनी high vibrational frequencies में.....same vibrational frequencies की ओर प्रवृत्त होना तो प्रकृति का नियम ही है...क्या एक इकाई में निहित मुक्तिबोध को प्राप्त सत्ता वैसे ही किसी और इकाई में निहित उस अव्यक्त सत्ता को पहचान सकती है... यही इस रचना में निहित है.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 7:27pm

अभिव्यक्ति की भाव दशा पर आपके अनुमोदन के लिए आभारी हूँ आदरणीया अन्नपूर्ण बाजपेयी जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 13, 2013 at 7:26pm

आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

रचना की अंतर्धारा आपको पसंद आयी..यह जानना सुखाकर है...आपका हृदय से आभार.

सादर.

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