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अंतर्मन से भाव निकल कर, गीतों में ढल जाते हैं (गीत )

मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं 

कुछ भावों के बादल जैसे, उमड़-घुमड़  कर आते हैं 

 

दिल में जन्म लिया शब्दों ने , बूँदें बन कर ज्यों बरसे

अंतर्मन से भाव निकल कर, गीतों  में ढल जाते हैं

 

मेरी कलम की  स्याही पाकर  , रूप गीत का  है सँवरा

रस छंदों से मुक्तक मिलकर, काव्य कलष छलकाते हैं

 

साँस-साँस में छुपे दर्द को ,घूँट-घूँट हैं जो पीते

मिलकर पन्नों से वो आखर ,नव जीवन जी जाते हैं

 

पल-पल भाव हृदय से उठकर, कलम की बाहों में आकर

कभी ग़मों  की मधुशाला या,सरस गीत बन जाते हैं

 

मन के कागज़ पर लिख देते, सप्तसुरों की परिभाषा  

स्वर  वीणा  के तार छेड़कर, झंकृत ये कर जाते हैं

 

दोहों छंदों की माटी में ,नव अँकुर हैं जब-जब फूटे

गीतों की सरिता में बहकर, मन सिंचित कर जाते हैं  

मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं 
कुछ भावों के बादल जैसे, उमड़-घुमड़  कर आते हैं

**************************************

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on November 12, 2013 at 11:53pm

गीत रचना की मानसिक आत्मिक प्रक्रिया का गहन अंतर्प्रेक्षण कर समस्त प्रक्रिया को गीतबद्ध कर देना एक समर्थ साधिका का ही कार्य हो सकता है,  नमन।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on November 12, 2013 at 8:29pm

आ0 राजेश  जी,    जी, आपने सही ही कहा....//मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं//  जब तक दिल मे भावों का जन्म नहीं होता है, गीत शब्द नहीं बन पाते है। वाह क्या बात है।  बहुत सुन्दर गीत...आनन्द आ गया।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 9:27am

आदरणीय अरुण निगम जी त्रुटी इंगित करने के लिए दिल से आभार आपका ,मेरे शब्दकोष ने भ्रम पैदा किया जिसमे अँकुर भी है अंकुर भी है ,कलष भी कलश भी है आपने कहा है तो सही होगा ,मेरे कलम की स्याही पाकर =हाँ एक मात्रा अधिक है किन्तु गायन में सही आ रहा है तो ये चांस लेना पड़ा ,फिर भी मूल पोस्ट में ठीक करने की कोशिश करुँगी हार्दिक आभार आपका   


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 12, 2013 at 9:12am

आदरणीया , बिल्कुल सही कहा. गीत का जन्म ऐसे ही होता है. कलष को कलश और अँकुर को अंकुर कर लें. शायद टंकण त्रुटि होगी.

मेरी कलम की  स्याही पाकर...............इस पंक्ति में मुझे प्रवाह कुछ बाधित प्रतीत हो रहा है. 

दोहों छंदों की माटी में ,नव अँकुर हैं जब-जब फूटे

गीतों की सरिता में बहकर, मन सिंचित कर जाते हैं  ...

अतिसुन्दर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:50am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी प्रतिक्रिया ने इस गीत को सार्थकता प्रदान की ,मेरी लेखनी को नव ऊर्जा प्राप्त हुई दिल से आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:48am

जीतेन्द्र गीत जी प्रस्तुति आपकी सराहना पाकर धन्य हुई .दिल से आभारी हूँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:47am

आदरणीय अखिलेश श्रीवास्तव जी आपकी प्रतिक्रिया से हर्षित हूँ ,मेरा लिखना सार्थक हुआ ,हार्दिक आभार आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:46am

प्रिय अन्नापूर्णा जी आपका बहुत- बहुत आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:44am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपको गीत एवं भाव भाव अच्छे लगे ,प्रस्तुति पर आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 12, 2013 at 8:42am

प्रिय प्राची जी गीत के भाव आपके दिल को छू सके आपको पसंद आया दिल से आभारी हूँ 

कृपया ध्यान दे...

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