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नख-दंत के संसार में गुम

ढूंढता निज मर्म हूँ  मैं

ये रूचिर

रूपक तुम्‍हारे

गुंबजों की

पीढि़यां

दंगों के

फूलों से चटकी

कुछ आरती,

कुछ सीढि़यां

थुथकार की सीली धरा पर

सूखता गुण-धर्म हूँ मैं

रंगों की

थोड़ी समझ है

कृष्‍ण तक तो

श्‍वेत था

आह्लाद के

परिपाक में भी

एकसर

समवेत था

युगबोध पर कहता मुझे है

कि नहीं यति-धर्म हूँ मैं

तन ऐंठती

धूसर हवाएं

छीजता

विश्‍वास है

प्राचीर में

पैबस्‍त जड़ भी

करती मेरा

उपहास है

किरदार जो आए नए हैं

कहते हैं अपकर्म हूँ मैं

अब कोई

सुनता कहां है

इस पुरा

फ़नकार को

अभ्‍यस्‍त हैं

अब यूथ सारे

सीत्‍कार को

चीत्‍कार को

चीथड़े वल्‍कल मेरे अब

जीर्ण सा इक वर्म हूँ मैं

(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)

यति  - धर्म : सनातन धर्म के अर्थ में प्रयुक्‍त

वर्म : घर के अर्थ में प्रयुक्‍त

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 3:15pm

//अनुपम सूत्र आपने पकड़ा दिया, अब भूल बिल्‍कुल नहीं होगी वादा है । //

आदरणीय, यह सूत्र कई बार संप्रेषित हुआ है.

//रेगुलर रहने की कोशिश करूं तब भी नहीं रह सकता, परिवार कहीं कार्यक्षेत्र कहीं, दौरा कहीं, बड़ी गड़बड़ है, लगता है हमेशा लैपटाप लेकर ही चलना पड़ेगा//

जो गति तोरी, वही गति मोरी .. या कइयों की..  :-)))

लैपटॉप और मोबाइल, ये तो आधुनिक कर्ण के कवच-कुण्डल सदृश हैं.

Comment by राजेश 'मृदु' on October 3, 2013 at 2:58pm

//आप जो कहें, उसकी पंक्तियाँ किसी मान्य विन्यास को जीयें, भले ही विन्यास के समस्त विन्दुओं को आपने ही नियत किया हो//

जय हो आदरणीय, अनुपम सूत्र आपने पकड़ा दिया, अब भूल बिल्‍कुल नहीं होगी वादा है । रेगुलर रहने की कोशिश करूं तब भी नहीं रह सकता, परिवार कहीं कार्यक्षेत्र कहीं, दौरा कहीं, बड़ी गड़बड़ है, लगता है हमेशा लैपटाप लेकर ही चलना पड़ेगा  ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 2:49pm

आप रेगुलर रहिये..  :-))))

इन पन्नों पर कई बार.. बहुत कुछ साझा होता रहता है..  सतत प्रवहमान प्रक्रिया है यह तो.  हा हा हा....

खैर, बात यह है कि आप जो कहें, आदरणीय, उसकी पंक्तियाँ किसी मान्य विन्यास को जीयें, भले ही विन्यास के समस्त विन्दुओं को आपने ही नियत किया हो.

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on October 3, 2013 at 2:34pm

एक बार पुन: क्षमा चाहता हूं, मैं आपकी 'लत' के साथ मजाक करने का हक रखता भी नहीं हां एक बात जरूर कहूंगा कि जिस शास्‍त्रीयता के निर्वहन की बात आपने की है शायद उसके अंगों - उपांगों को समझने में (ऐसा मैं मुकम्‍मल तौर पर मानता हूं) जरूर कहीं ना कहीं गलती हो रही है जिसकी वजह से ऐसा कुछ हुआ, इस हेतु खुले मन से गुरूजनों को वो सारी खामियां बतानी होंगी ताकि खामियों की समझ भी विकसित हो एवं उनको सुधारने के उपाय भी किए जा सकें, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 2:20pm

आदरणीय, आपके गीतों की यदि मुझे ’लत’ लग गयी है तो आपको कोई हक़ नहीं बनता कि मेरी तलब के साथ आप मज़ाक़ करें.  .. :-)))

मैं आपके ऐसे बहुमुखी नवगीतों को सुनना-पढ़ना चाहता हूँ, इसी ऊँचाई के साथ, आदरणीय. 

किन्तु, मेरा आशय शास्त्रीयता का निर्वहन करते नवगीतों से है, न कि मात्र तथ्य साझा करते नवगीत या रचनाओं से.
तथ्य और तार्किकता को कारिकाओं में बहुत धुना है मैंने. अब मेरा मन यदि सरस बहना चाह रहा है, तो उसे इस सुख से वंचित न करें..

प्लीऽऽऽऽज


सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on October 3, 2013 at 2:09pm

आदरणीय सौरभ जी, आपने सही कहा कि अन्‍यमनस्‍कता कहीं ना कहीं हावी हो गई । स्‍वीकार करता हूं, आगे से खयाल रखूंगा, इस बार क्षमा, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on October 3, 2013 at 2:08pm

आप सबका हार्दिक आभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 1, 2013 at 8:03pm

कथ्य और प्रभाव से अत्यंत समृद्ध इस नवगीत पर मैं यदि निश्शब्द हूँ, तो इसके दो कारण हैं.

एक, बहुत कुछ समेट-बटोर लायी यह रचना क्या-क्या नहीं उपलब्ध कराती है ! साधु-साधु ! प्रत्येक बंद सार्थक और स्पष्ट है ! हृदय से बधाई, आदरणीय.
लेकिन दूसरा कारण है प्रस्तुत रचना में प्रयुक्त शिल्प, जोकि  मुझे एकदम से समझ में ही नहीं आया है. आप कृपया बता दें.
या, शिल्प और प्रस्तुतीकरण के प्रति आप अन्यमन्स्क रहे ?
निश्शब्द हूँ. कि, ऐसी रचना का संप्रेषक अपनी शैली को इतना अनगढ़ क्यों रहने देना चाहता है ? क्या कहूँ ?

आप रह-रह कर स्वर-गेयता को प्रभावी होने देते हैं जो शास्त्रीय न होने के कारण रचनाकर्म के साथ धोखा कर जाती है.
ऐसा कुछ कह जाने के लिए क्षमा.. लेकिन और किससे कहूँगा, रचनाकर्मी आप हैं.
सादर

Comment by MAHIMA SHREE on September 28, 2013 at 11:20pm

आदरणीय क्या कहूँ अभिभूत हूँ ... अब तक की आपकी श्रेष्ठतम प्रस्तुति में से एक ... कई बार पढ़ा .... हार्दिक बधाई

Comment by विजय मिश्र on September 28, 2013 at 12:52pm
"रंगों की

थोड़ी समझ है

कृष्‍ण तक तो

श्‍वेत था

आह्लाद के

परिपाक में भी

एकसर

समवेत था

युगबोध पर कहता मुझे है

कि नहीं यति-धर्म हूँ मैं " --- अद्भुत अभिव्यक्ति .हृदयंगम करने योग्य इस अति अर्थपूर्ण रचना के लिए आत्मीय भाव एवं बधाई .

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