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गज़ल ----" इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है "

2122     2122     2122

पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से      

क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से

मंज़िलों के वास्ते कितने हैं पागल  

हर किसी को पूछना है तिश्नगी से         

इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है

लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से

आदमीयत की महज़ तो आरजू है

और हमको चाहिये क्या आदमी से

धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें

धूल खाते लटकते जो अलगनी से

.

          गिरिराज भंडारी

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 5:45pm

आदर्णीय विजय भाई , उत्साह वर्धन के लिये बहुत बहुत आभार !

Comment by विजय मिश्र on August 26, 2013 at 5:27pm
"आदमीयत की महज़ तो आरजू है
और हमको चाहिये क्या आदमी से " - बहुत माकूल इल्तजा आजके माहौल से . मुबारकवाद फरमाएं गिरिराजजी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 5:23pm

आदरणीय सोनम जी , हौसला अफज़ाई के किये आपका बहुत शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 5:22pm

आदरणीय अरुन भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!

Comment by Sonam Saini on August 26, 2013 at 2:45pm

पूछता मैं फिर रहा हूं हर किसी से      

क्या निकल सकते हैं ऐसी बेबसी से.......................

खुबसूरत ग़ज़ल

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 26, 2013 at 1:33pm

वाह आदरणीय लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने मतले ने मन मोह लिया सभी अशआर बेहद शानदार बन पड़े हैं दिल से दाद कुबूल फरमाएं.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 12:10pm
अभिनव भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!
Comment by Abhinav Arun on August 26, 2013 at 8:51am

बहुत सशक्त और खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय बहुत बधाई क्या कहने --

इस क़दर तारीक़ियों की लत लगी है

लग रहे हैं ख़ौफ़ खाये रौशनी से


आदमीयत की महज़ तो आरजू है

और हमको चाहिये क्या आदमी से

उम्दा वाह !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 26, 2013 at 7:37am

आदरणीय वन्दना जी उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!

Comment by vandana on August 26, 2013 at 7:25am

धर्म सारे चल नदी में हम सिरा दें

धूल खाते लटकते जो अलगनी से

बहुत बढ़िया 

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