उषा आज फिर देर से आई । मै कुछ पूछने को लपकी ही थी कि उसका चेहरा देख रुक गई, वह सिर पर पल्लू रखे चेहरे को छुपाने का प्रयास कर रही थी । वह अंदर आई और चुपचाप बर्तन उठाये और धोने बैठ गई । उसकी एक आँख पूरी काली थी चेहरे पर और गर्दन पर कई निशान थे । कुछ न पूछना ही मुझे ठीक लगा । काम निपटा कर वह अंदर आई । मुझसे रहा न गया मैंने पूंछ ही लिया – “उषा क्या बात है आज फिर तुम्हारे पति ने तुम्हें .......” बात पूरी भी न हो पाई कि वह बीच मे ही काट कर बोली – “ नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है , अम्मा ने कहा था कि पति की हर बात, हर काम उसका परसाद समझ सिर माथे लगाना , वो ही तुम्हारा देवता है । और वो कड़वी सी हंसी हंस कर चल दी ।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ. अन्नपूर्णा जी, कथा में उषा के व्यक्तव्य में जो तंज होना था वो पूरी तरह से उभर कर नहीं आ पाया. उसकी कडवी हँसी उसकी लघुता को इंगित करती है नकि माँ के वाक्य को परिभाषित किया है.
सादर.
आदरणीया अन्नपूर्णा जी सुन्देर लघुकथा कम से कम आज की अम्माएं जाग जाएं . बेटी अम्मा की सीख का पालन कर रही है . ये अच्छे सन्सकार का परिचायक है . बधाई
आदरणीय माथुर जी आपकी बात से मै सहमत हूँ , जब नारी ही नारी का सम्मान करना सीख लेगी तभी बदलाव हो सकता है ।
आदरणीया अन्नपूर्णा जी , समाज में पूर्व समय से चले आ रही सीख क्या आज के जमाने में प्रासंगिक रह गई है शायद पहले भी प्रासंगिक नही थी और आज तो बिल्कुल भी नही , ना जाने सम्पूर्ण परिवर्तन में कितना समय और लगेगा । शायद जब नारी ही नारी की सहायता करना प्रारम्भ कर देगी तो ही परिवर्तन सम्भव है ।
आदरणीया मीना जी आपने सही कहा ।
ओह!!..... कितनी भोली है उषा, वो तो इंसान भी नही है जिसे वो देवता समझ रही है |
आदरणीय विजय मिश्र जी आपकी संवेदनाओं का मै पूरा आदर करती हूँ । सादर
आदरणीय बृजेश जी बिलकुल सही कहा आपने , आज भी जब ये स्थितियाँ दिखती है तो कष्ट होता है ।
आदरणीय भण्डारी जी आप जो भी समझ लें परंतु आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी मै आपकी और आदरणीय प्रभाकर जी की बात को पूर्ण रूप से सहमति देती हूँ लेकिन कहीं कहीं आज भी ऐसे लोग वही मानसिकता जिंदा है । ये भी सही है कि नारियों की सोच बदली है और वे काफी आगे आयीं है । किन्तु इनका प्रतिशत अभी भी कम ही है । कुछ महिलाए अपनी पुरानी सोच के साथ अभी भी मिल ही जाती है । खास कर गाँव के पिछड़े तबके मे ।
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