For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

निगाहों ने छुपा रखी समन्दर की निशानी है

निगाहों ने छुपा रखी समन्दर की निशानी है ।

बहा करता है अश्कों में ये जो खारा सा पानी है ।

ये मानो या न मानो तुम कोई सागर तो है दिल में,

उठा करती यहाँ पल पल जो मौजों की रवानी है ।

हज़ारों दर्द सहकर भी मोहब्बत छोड़ ना पाया ,

अकेला दिल नही मेरा ये हर दिल की कहानी है ।

इश्क से रूबरू होकर नए हर दिल के किस्से हैं ,

मगर ये चीज उल्फत तो यहाँ सदियों पुरानी है ।

भले ही दुनियादारी के बड़े नादान पंछी हम ,

मगर दिल के हिसाबों में समझ अपनी सयानी है ।

खुदा यूँ ही नही बोला इश्क को इश्क वालों ने ,

इश्क करके ही ये जाना चीज क्या जिंदगानी है ।

ये सागर इश्क का ऐसा पार हों डूबने वाले ,

बचा ले जाये जो खुद को ये उसकी बेईमानी है ।

जलाकर जिसकी हस्ती को ये शम्मा हो रही रौशन ,

न होगा जब वो परवाना तो शम्मा बुझ ही जानी है ।

मौलिक व अप्रकाशित

नीरज

Views: 1106

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 15, 2014 at 11:10pm

अच्छी रचना है ... जहाँ तक मुझे लगता है मुफाईलुनx4 पर बस ज़रा से कसावट की गुंजाईश है कमाल की ग़ज़ल निखर आएगी.

एक वाकई अच्छा शेर बन पड़ा है 

ये मानो या न मानो तुम कोई सागर तो है दिल में,

उठा करती यहाँ पल पल जो मौजों की रवानी है ।

बहुत खूब बधाई 

Comment by Neeraj Nishchal on August 14, 2013 at 8:11pm

आदरणीया प्राची जी आपका बहुत बहुत आभार
और आपको बहुत बहुत प्रणाम ।
और क्षमा करें आपकी टिपण्णी गलती से डिलीट हो गयी ।
अपनी एक कविता आपको dedicate करना चाहता हूँ ,,,,,,

बड़ी ख़ुशी की खबर मिली है ।
कि उनके दर की डगर मिली है ।

क्यों ना उठा लें हम लाभ इसका ,
ये जिंदगानी अगर मिली है ।

न पूछो कितनी मुद्दत से हमको ,
कृपा की उनकी नज़र मिली है ।

इस दिल की धड़कन में याद उनकी ,
हमे तो शामो सहर मिली है ।

उनकी मुहब्बत और प्यार से ही ,
ख़ुशी की ऐसी लहर मिली है ।

उन्ही का मन्दिर उन्ही की मूरत,
ह्रदय के भीतर उतर मिली है ।

हमारे जीवन को उनकी करुणा ,
न पूछिये किस कदर मिली है ।

_/\_

Comment by Neeraj Nishchal on August 14, 2013 at 7:49pm
वंदना जी बहुत बहुत आभार ।
Comment by Neeraj Nishchal on August 14, 2013 at 7:45pm
शुक्रिया केतन परमार जी ।
Comment by Neeraj Nishchal on August 14, 2013 at 7:40pm
विजय जी बिलकुल मैंने तो बस इशारा किया था और आपने सारी बात ही समझ ली
और सारा निचोड़ सामने रख दिया चार पक्तियों में ही बहुत कुछ कह दिया ।
इसके लिए बहुत बहुत हार्दिक आभार _/\_
Comment by vandana on August 14, 2013 at 7:34am

बहुत शानदार 

Comment by विजय मिश्र on August 13, 2013 at 10:19pm

नीरजजी , 

टिपण्णी पर आपका यह उद्गार आपसे पुनः एक अध्यात्मिक विश्लेषन करवा गया ," अथातो ब्रह्म जीज्ञासा " को बिभेद से आपने भक्ति पर लाकर रजनीशजी के दृष्टान्त से रखा . 'भक्ति ही तो न समाप्त होने वाली ब्रह्म की जीज्ञासा है जो हममें चेतन्य जीव के जागरण और सूक्ष्म के प्रति समर्पण और अधि आत्म की प्रेरणा देती है और जिजीविषा को परमात्म तत्व को पाने के लिए उत्सुक करती है , आत्म तत्व का निरंतर विकास करती है ,जिस पूंजी के साथ जीव बारम्बार अनंत की ओर उन्मुख और अग्रसर होता जाता है और एक क्षण ऐसा आता है जो मैं नहीं ,तू ही तू का बोध करा जाता है और तभी आगे की शेष यात्रा सुगम हो जाती है .

सात्विक भाव में उल्लिखित आपकी इन पंक्तिओं ने रोम-रोम से उल्लासित किया . साधुवाद एवं शुभरात्री .

Comment by Neeraj Nishchal on August 13, 2013 at 8:41pm

आदरणीय विजय जी बिलकुल जो गुज़रा हुआ हो और जो अनुभव में
आया हो वही लिखना चाहिए कल्पना तो ऐसे हो गयी जैसे
गौरी शंकर की बर्फ से ढकी चोटी पर बिखरी सूरज की किरणे
और उन सूरज की किरणों में उस स्वर्ण जैसी बर्फ को दूर से
देखना मगर वहां जाकर उस चोटी पर जिया जाए फिर उसे लिखा
जाए तो बात जीवंत हो जाती है ......
और दूसरी बात कवि जिस भावना में जिस गहराई में डूब कर
लिखता है मुझे नही लगता कोई पाठक उसकी कविता के साथ
न्याय कर पाता है और उन्ही अर्थों में उस कविता को ले पाता है जिन
अर्थों में उस कवि ने कविता लिखी होती है कवियों की कविताओं
के साथ जैसा न्याय ओशो आचार्य रजनीश जी ने किया है
शायद ही किसी ने किया हो कबीर की रचनाओं को उन्होंने जितनी गहराइयों
में उतारा है वो बहुत ही अदभुत है
एक कविता पर कहे गए उनके विचारों से बहुत कुछ पता चलता है .,.

जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है के प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी | औरपीछे से पुछा गया “कौन ? कौन है ? ”और प्रेमी ने कहा “मै हु तेरा प्रेमी तू मेरी पद चाप नहीं पहचानी ? ” लेकिन भीतर सन्नाटा हो गया | उसने फिर दस्तक दी, उसने कहा “तूने मुझे पहचाना नहीं ? मेरी आवाज नहीं पहचानी ? “और प्रेयासिने कहा “ ये घर छोटा है, ये प्रेम का घर है यहाँ दो ना समांसकेंगे |” प्रेमी लौट गया | दिन आये राते आयी, सूरज निकला चाँद निकला, वर्ष आये वर्ष गए | उसने बड़ी कठोर साधना की, फिर वर्षो बाद वापिस आया द्वार पे दस्तक दी |फिर पुछा गया वही प्रश्न, वही प्रश्न सदा पुछा जाता है, “कौन है?” अब की बार उसने कहा “मैं नहीं हु तू ही है” | जलालुद्दीन रूमी ने यहाँ कविता पूरी कर दी मै पूरी नहीं कर सकता | रूमी से मेरा कही मिलना हो जाये तो उनसे कहु "अधूरी है, इसे पूरा करो" | क्यों की प्रेमी कहता है की“मै नहीं हु, तू ही है” लेकिन जब तकतुम्हे “तू " का पता है “मै” का पता भी होगा | ये कहने के लिए भी “मै” होना चाहिए की “ मै नहीं हु” ये कौन कहता है, ये किसको स्मरण होरहा है के “मै नहीं हु" ? और ये कौनकहता है के “ तू ही है “ ? ये भेद कौन कर रहा है “मै” और “तू” का ? सब मौजूद है | सिर्फ जो धारा पृथ्वी के ऊपर बहती थी वो अंतर धारा हो गई | वो पृथ्वी के निचे बहने लगी | “मै” अंडरग्राउंड चला गया | और ये और खतरनाक हालत है | “मै” ऊपर था तो पहचान में आता था, दुश्मन साफ साफ था | अब “मै” जो भूमिगत हो गया | अब उसने अपने को निचे छुपलिया, अब वो कहता है “मै नहीं हु” अहेंकर बड़ा सूक्ष्म है वो ये भी कह सकता है के “मै नहीं हु” और अपने को बचा ले सकता है | अगर मै उस कविता को आगे बढ़ाउ तो मै उसे फिर वापिस भेज दूंगा | हलाकि कठोरता लगेगी की प्रेमी के साथ में जत्ती कर रहा हु लेकिन मै क्या कर सकता हु | मेरे बस में हो तो मै यही कहूँगा के प्रेयसी ने कहा की “अभी कुछ फरक नहीं हुवा, ये घर बोहोत छोटा है इसमें दो न समां सकेंगे” | “प्रेम गली अति सकरी, तामे दो ना समाये” प्रेमी फिर लौट गया | फिर तो और ज्यादा समय लगा होगा | और अनंत वर्ष या कहना चाहिए अनंत जन्म | और एक दिन वो घडी आयी, जब प्रेमी सच में ही मिट गया | ना “मै” ऊपर रहा ना भीतर रहा ना चेतन में ना अचेतन में ना भूमि पर ना भूमिगत | तब मेरे सामने एक अड़चन है, अब उसको कैसे लाये वापिस, प्रेयसी केदरवाजे पर ? मै नहीं ला सकता वो भीमै नहीं कर सकता | शायद इसलिए जलालुद्दीन रूमी ने कविता वही पूरी कर दी लेकिन कविता बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी उसको पूरा कहा करोगे ? कविता को आखिर कही सुरु और कही पूरा होना पड़ता है, ज़िन्दगी तो कही सुरु नहीं होती और कही पूरी नहीं होती | मै भी जनता हु जलालुद्दीन की तकलीफ, वहीक्यों पूरी कर दी कविता को ? क्यों की जब “मै” बिलकुल ही मिट जायेगा तो फिर प्रेमी लौट नहीं सकता | पर क्या ज़रूरत है की प्रेमी लौटे ही ? मै पसंद करूँगा की प्रेयसी उसे खोजने निकलती | क्यों की जब “मै” मिट गया प्रेमी का तो प्रेयसी को खोजने निकलना हीपड़ेगा | जिस दिन व्यक्ति का "मैं"मिट जाता है उस दिन परमात्मा खोजने निकलता है | तुम कही मत जाओ सिर्फ “नहीं हो जाओ" और परमात्मा भागा चला आएगा | ~ ओशो अथातो भक्ति जिज्ञासा

Comment by Neeraj Nishchal on August 13, 2013 at 7:30pm

धन्यवाद महिमा जी ।

Comment by Ketan Parmar on August 13, 2013 at 5:59pm

bahut khoob

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
3 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
3 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब,  ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है और आपकी तारीफें वो ए'ज़ाज़…"
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज भाईजी के प्रधान-सम्पादकत्व में अपेक्षानुरूप विवेकशील दृढ़ता के साथ उक्त जुगुप्साकारी…"
5 hours ago
Ashok Kumar Raktale commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . लक्ष्य
"   आदरणीय सुशील सरना जी सादर, लक्ष्य विषय लेकर सुन्दर दोहावली रची है आपने. हार्दिक बधाई…"
5 hours ago

प्रधान संपादक
योगराज प्रभाकर replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"गत दो दिनों से तरही मुशायरे में उत्पन्न हुई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की जानकारी मुझे प्राप्त हो रही…"
5 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"मोहतरम समर कबीर साहब आदाब,चूंकि आपने नाम लेकर कहा इसलिए कमेंट कर रहा हूँ।आपका हमेशा से मैं एहतराम…"
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"सौरभ पाण्डेय, इस गरिमामय मंच का प्रतिरूप / प्रतिनिधि किसी स्वप्न में भी नहीं हो सकता, आदरणीय नीलेश…"
6 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय समर सर,वैसे तो आपने उत्तर आ. सौरब सर की पोस्ट पर दिया है जिस पर मुझ जैसे किसी भी व्यक्ति को…"
7 hours ago
Samar kabeer replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"प्रिय मंच को आदाब, Euphonic अमित जी पिछले तीन साल से मुझसे जुड़े हुए हैं और ग़ज़ल सीख रहे हैं इस बीच…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय अमीरुद्दीन जी, किसी को किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है. दुराग्रह छोड़िए, दुराव तक नहीं…"
14 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"अपने आपको विकट परिस्थितियों में ढाल कर आत्म मंथन के लिए सुप्रेरित करती इस गजल के लिए जितनी बार दाद…"
15 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service