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ओस की बूँदें//ग़ज़ल//कल्पना रामानी

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सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!

नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!

 

चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,

मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!

 

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,

न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

 

करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,

घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!

 

नवल सूरज की किरणों में, छिपी होती हैं ये शायद,

जो पुरवाई पवन लाती, सुधा सी ओस की बूँदें!

 

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,

न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on August 13, 2013 at 10:04am

आदरणीय, आपकी हर टिप्पणी मेरे लिए एक नई ऊर्जा का स्रोत बनती है। किसी संवेदनशील रचनाकार  का मन वही पढ़ सकता है  जिसके अपने हृदय में संवेदनाएँ बसती हों। आपका हृदय से आभार।  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 13, 2013 at 9:47am

गीत और ग़ज़ल के सामंजस्य को कई-कई बार बिठाने का प्रयास हआ है. लेकिन जिस आश्वस्ति के साथ बात बननी चाहिये वह बात अक्सर बनती नहीं. कारण कि या तो ग़ज़लकार हावी होजाता है या गीतकार. और, संतुलन रह नहीं पाता. 

आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल में भरसक कोशिश हुई है इसी संतुलन को साधने की. 

एक नैसर्गिक भावुक गीतकार की ग़ज़ल कितनी संप्रेषणीय होती है यह उदाहरण स्वरूप सामने है. 

आदरणीया, बधाई हो.

सादर

Comment by कल्पना रामानी on August 10, 2013 at 1:20pm

हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुलभ जी

सादर

Comment by Sulabh Agnihotri on August 9, 2013 at 5:57pm

बहुत सुन्दर है कल्पना रामानी जी !

Comment by कल्पना रामानी on August 8, 2013 at 7:13pm

बृजेश जी आप सबके सहज स्नेह से ही प्रेरणा मिलती है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by बृजेश नीरज on August 8, 2013 at 6:56pm

वाह! लाजवाब! आदरणीया आपकी रचना पढ़ते पहले यही लगता है कि कोई इतना अच्छा कैसे लिख सकता है! आप जिस सहजता से हिन्दी में गजल लिखती हैं वह बस दांतों तले उंगली दबा लेने को मजबूर करता है।
आपको नमन!

Comment by कल्पना रामानी on August 8, 2013 at 6:51pm

केतन जी, हार्दिक धन्यवाद

सादर

Comment by Ketan Parmar on August 8, 2013 at 4:27pm

EK ACHI KOSHISH KE LIYE HARDIK BADHAAI HO DIDI

Comment by कल्पना रामानी on August 8, 2013 at 3:38pm

आदरणीय अभिनव अरुण जी, जितेंद्र गीत जी, प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद

सादर

Comment by Abhinav Arun on August 8, 2013 at 1:08pm

और हां इस शेर के लिए विशेष बधाई --

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप प्रातः का,

न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!

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