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मत्तगयंद सवैये - (रवि प्रकाश)

प्रथम प्रयास
- - - - - - - - -
1. बंजर हो धरती कितनी पर ये मन उर्वर देश वही है।
शूल गड़े दुखते तन में नित कातरता पर लेश नहीं है।
कौन मुझे समझे,परखे,उलझा अपना चिर वेश वही है।
कुंठित हो कर भी मुझमें कुछ धार अभी तक शेष कहीं है॥

2.

सादर है अधिकार तुम्हें तुम रूप-सुधा अविराम लुटाना।
तारक,हीरक या मणि-कांचन-मंडित जीवन पे इतराना।
यौवन की चिनगी दिखला कर प्रेम-हुताशन भी सुलगाना।
प्यास बुझे न नदी-जल से जब सागर के तट गागर लाना॥


3.

मौन अभीष्ट नहीं मुझको सुख-गीत प्रिये,पर गा न सकूँगा।
कल्पित नंदन-कानन में मधु-वासित कुंज सजा न सकूँगा।
गोपन इंगित में दृग के तन को,मन को उलझा न सकूँगा।
मैं दुख की नगरी रहता सुन,प्रेम-गली अब आ न सकूँगा॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by annapurna bajpai on August 2, 2013 at 4:38pm

आदरणीय रवि प्रकाश जी अति सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।

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