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आदरणीय मनोज जी
शास्त्र सम्मत मुझे जितना ज्ञान है उसके अनुसार प्रभु ने ये युद्ध धर्म की पुनः स्थापना करने हेतु किया था
"जब जब होई धर्म की हानि"
कुछ तो ऐसा करना ही होता है
उन्होने ने भी जीव मात्र को यही शिक्षा दी है के अपने धर्म से डिगना नहीं है और अधर्म का नाश करना है
फिर भले उसके रास्ते में रिस्ते नाते दीवार बन खड़े हों
इस एक मात्र उपदेश की कमी लगी आपकी रचना में
साधुवाद
मनोज शुक्ला जी , आपकी कविता की थीम तो बहुत अच्छी है .लेकिन आलोचना की दृष्टि से बहुत सी कमियाँ है . कर्ता का प्रश्न , के
साथ संदेश श्पष्ट नहीं है. मैं कई बार पठन के बाद इस निश्चय पर पहूँची हूँ. आपको बहुत बहुत ध्न्यवाद .
सुंदर विचार कहे आपने आदरणीय ........ मानव का एक विवेक है जिसे कोई भगवन नही बल्कि स्वयं को ही जगाना होता है ...किसी भी घटना/ दुर्घटना के लिए कोई और नही बल्कि हमारी ही विचार धारा, बुद्धि ही दोषी है। उपदेश युद्ध के लिए बल्कि स्वयं के स्वयित्ता की रक्षा हेतु था .....कर्म करने हेतु था ...!
बहरहाल शुभकामनायें स्वीकारे आदरणीय मनोज जी!
सादर गीतिका 'वेदिका'
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