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शिशिर (नवगीत पर एक प्रयास)

शीत जैसे जम गयी,

नम धूप लगती है।

 

ठिठुरते रात भर

सार में सारे ही पशु

भोर कि शाला में

ठिठुरते सारे ही शिशु,

फिजां रंगीन दिखे

मन रूप लगती है।

 

द्वार बंद है शाम से बंद

खिडकी और झरोखे,

द्वार पर होती हो दस्तक

कम हैं ऐसे भी मौके,

करें तंग दरारें,गुजरती

हवा खूब लगती है। 

 

उपरोक्त  रचना स्वरचित व अप्रकाशित है. 

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on January 31, 2013 at 8:54am

आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, आपसे अनुमोदन पाकर नया मार्ग प्रशस्त हुआ. चूप शब्द को मैंने खामोशी की निरंतरता को दिखाने के उद्देश्य से लिखा है. कई बार ऐसे उच्चारण में चुप शब्द को सुना है, अवश्य ही वह चुप का अपभ्रंश होगा. आप कह रहे हैं तो अवश्य ही मुझे इसे बदलना होगा.मै शीघ्र ही इस पंक्ति को बदलने का प्रयास करता हूँ. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 31, 2013 at 8:40am

आदरणीय श्याम नारेन वर्मा जी,आद. संदीप जी आद. नादिर खान साहब सादर आप सब से प्रोत्साहन पाकर मेरा मनोबल बढ़ा है. आप सभी के सहयोग के लिए हार्दिक आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2013 at 11:31pm

यह एक सार्थक प्रयास हुआ है, आदरणीय अशोकभाई. आपका प्रयासरत होना और विविध विधाओं के प्रति गंभीरता रोमांचित कर देती है.

वैसे, चूप का अर्थ क्या होता है ? क्या यह चुप शब्द है ?

Comment by नादिर ख़ान on January 30, 2013 at 10:59pm

आपकी रचना ने ठंड का एहसास बढ़ा दिया है 

बहुत बढ़िया ..

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 30, 2013 at 6:19pm

अच्छा प्रयास सर जी ......

Comment by Shyam Narain Verma on January 30, 2013 at 4:41pm

BAHOT KHOOB..................

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