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लिखी गई फिर पल्लव पर नाखून से कहानियां   

खिलखिलाई गुलशन में नृशंसता की निशानियां  

छिपे शिकारी जाल बिछाकर ,चाल समझ में आई 

उड़ती चिड़िया ने नभ से न  आने की  कसमें खाई 

बिछी नागफनी देख बदरिया मन ही मन घबराई 

गर्भ से निकली ज्यों ही बूँदे,  झट उर से चिपकाई 

सकुचाई ,फड़फडाई तितली देख देख ये सोचे 

कहाँ छिपाऊं पंख मैं अपने कौन कहाँ कब नोचे 

देख  सामाजिक ढांचा आज हर  मादा शर्मिंदा है 

एक सवाल अपने अस्तित्व से, री तू क्यूँ जिन्दा है ??

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 20, 2012 at 3:02pm

 प्रिय प्राची जी व्यथित हृदय से निकले उद्दगार हैं ये और कुछ नहीं कहना |       


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 20, 2012 at 2:40pm

कहाँ छिपाऊं पंख मैं अपने कौन कहाँ कब नोचे 

देख  सामाजिक ढांचा आज हर  मादा शर्मिंदा है 

एक सवाल अपने अस्तित्व से, री तू क्यूँ जिन्दा है ??.....................सम्पूर्ण नारीत्व की पीड़ा को आपने ज़ाहिर किया है इस अभिव्यक्ति में.

हर पंक्ति के भाव में निहित दर्द ह्रदय को कचोट रहा है, मन जार जार रो रहा है, पर बस व्याप्त पीड़ा है , जिसका कोई और छोर नहीं कोई पार नहीं, एक बेबसी है और क्रंदन है.

मानवता की शर्म से नज़रें झुकीं हैं पर समाधान एक बड़ा पश्नचिन्ह है.

आज नारी ह्रदय की ऐसी गहन गुह्य संवेदनाओं को शब्दबद्ध करने के लिए आपका आभार आदरणीया राजेश जी. सादर.

कृपया ध्यान दे...

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