कभी चिराग बनकर जला
कभी आग बनकर जला
जली हो चाहे किसी की भी खुशियाँ
लेकिन मैं ही दाग बनकर जला...01
.
सुलग-२ जल रहा जिस्म ये मेरा..
तपते आशियाने ही रहा अब मेरा डेरा..
कभी किसी ने तरस खाकर छोड़ा,
तो कभी किसी के लिए हिसाब बनकर जला....02
.
धोका देकर मुझे मिटती गई मेरी ही हस्ती..
आरजू ही की थी की, जल गई मेरी बस्ती
तो कभी उन बस्तियों के साथ में,
तो कभी उनकी खाक बनकर जला....03
.
हौसला रखे हम, तिल-२ मिटते गए..
अरमान ख्वाहिशें हर पल जलते गए..
तो कभी किसी की शौक के लिए,
तो कभी उसका इलज़ाम बनकर जला..04
Comment
amazing...!!!
प्रदीप जी, आपकी कुछ रचनाएँ अबतक इस मंच पर आ चुकी हैं. आपमें अंतर्निहित संभावनाएँ हैं.
किन्तु, आपकी संभावनाओं को मात्र आवश्यक स्वाध्याय ही नहीं, बल्कि, अनुभवी तथा सक्षम उंगलियों द्वारा आवश्यक दिशा-निर्देशन की आवश्यकता है. आप इस मंच पर पोस्ट हुई अन्यान्य रचनाकारों की समृद्ध रचनाएँ तो पढ़ें ही, साथ चल रही कई-कई कक्षाओं में भी उपस्थित हों.
रचना-कर्म के प्रति आपके उत्साह और आपकी भाव-दशा का हम सम्मान करते हैं.
शुभेच्छाएँ
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