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मुझे यकीं है, समझ न सकोगे तुम

मुझे यकीं है
समझ न सकोगे तुम
 
दुनिया की रस्में
उल्फत की कसमें
क्यूंकि तुम हो ही नहीं
खुद के वश में

तुम हर रोज चलते हो
नित नए सांचे में ढलते हो
अपने हुए गैरों को छलते हो
फिर मंजिल में पहुँच
खुद के हाथ मलते हो
आखिर क्यूँ ???

देखो रात कितनी रंगीन है
किसी किसी को
फिर भी ग़मगीन है
रात शबनम रोती है
सुबह वो ही शराब होती है
यकीं करते नहीं हो तुम
यकीं कर लो गर
तो सुबहो शब् खराब होती है
क्यूँ होता है न
ऐसा ही

कोई एक ही ख्वाब जी रहा है
कोई रोज नए ख्वाब पी रहा है
रात को चादर क्या कह दिया मैंने
ख्वाब में ख़्वाबों को सी रहा है
एक का पूरा हुआ ख्वाब
कई लोगों का ख्वाब बन के रह गया
भेड़ चाल है भाई सब भेड़ चाल है
ये भी कमाल है और वो भी
वो तो बेमिशाल है
वही तो नया ख्वाब है
अब से
है न

दीप टिमटिमा रहा है
तेल ख़त्म हो रहा है
फडफडा उठा
और तेज और तेज
तड़प के बुझ गया
और उठा हौले हौले
धुंआ
जो दिखा किसी किसी को
क्यूँ
जब तलक जला
सबने देखा
बुझते बिसार दिया

मुझे यकीं है
समझ न सकोगे तुम   

संदीप पटेल "दीप"

Views: 306

Comment

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Comment by PHOOL SINGH on August 28, 2012 at 12:19pm

संदीप जी नमस्कार

बहुत ही सुंदर रचना के लिए बधाई....

फूल सिंह

Comment by Naval Kishor Soni on August 27, 2012 at 4:25pm

bahut khub----badhai ji

Comment by Rekha Joshi on August 27, 2012 at 11:03am


दीप टिमटिमा रहा है 
तेल ख़त्म हो रहा है 
फडफडा उठा 
और तेज और तेज 
तड़प के बुझ गया 
और उठा हौले हौले 
धुंआ 
जो दिखा किसी किसी को 
क्यूँ 
जब तलक जला 
सबने देखा 
बुझते बिसार दिया ,अति सुंदर अभिव्यक्ति संदीप जी ,बधाई 

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