कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने वाला खंडहर हो जिसके बुर्जों पे यादों के परिंदे आ आ के पंख फड़फफड़ाते हैं. कुछ मुलाकातें सीने में दफन होके भी अपनी रूह में ज़िंदा रहती हैं और बारहा किसे चेहरे की हंसीं, किसी की ज़ुल्फ की ज़ीनत, किसी पोशाक की खुशबू, और किसी दहन का ज़ाविया उसके बा-वज़ूद होने का एहसास दिलाते रहते हैं.
आज से तीन साल पहले इसी दिन मैं इम्फाल में था और मेरी ज़िंदगी को कोई लूट के जा रहा था. न जाने उस जानाँ का ये जाना कब ख़त्म होगा!
© राज़ नवादवी
हैदराबाद एअरपोर्ट, प्रातःकाल ०९.१५, ३१/०७/२०१२
गिर्दोपेश- इर्दगिर्द; सरापा- सर से पाँव तक; मजलिसेमूसीकी- संगीत की सभा; निस्बतों- आपसी संबंधों; नेस्तेनाबूद- समूल विनाश; ज़ीनत- श्रृंगार; दहन- होंठों तक के मुंह का भाग; ज़ाविया- कोण;
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