मैं मंजिल के करीब आकर बिखर न जाऊं
सोचता हूँकि आज रात अपने घर न जाऊं
मुझे भी है इन्तेज़ार उम्रदराज़ हो जाने का
दिनभर बेरोज़गार रहूँ और दफ्तर न जाऊं
लहरोंको देख तेरी नज़रों की याद आती है
मैंने सोचा हैकि फिर कभी समंदर न जाऊं
गली में कुहराम मचा है और मैं बच्चा हूँ
माँ ने कहा है कि मैं घर से बाहर न जाऊं
छोड़ गया है अपना कुनबा बीवीकी खातिर
अब्बा कहतें हैंकि मैं बड़े भाई पर न जाऊं
रोक लेती हैं मेरे कदम तेरी डबडबाई आँखें
अबजो जाऊं कभीतो तुझे बताकर न जाऊं
खो गया है दिल मेरा और तुम ये कहतेहो
अपना दिल ढूँढने मैंकूचाएदिलबर न जाऊं
जिउं तो जिउं इस हालमें और मरुँतो राज़
मैं इस जहाँ से लेकर दूसरा पैकर न जाऊं
© राज़ नवादवी
पुणे, १७/०३/२०१२
कूचाएदिलबर- दिल चुरा लेनेवाले आशिक की गली; पैकर- शरीर
Comment
मैं शेर कहता गया और वो वाह वाह करते गए,
वो वाह वाह करते गए और मैं शेर कहता गया
न वो रुके न हम, न रुकी अपनी बज्मेबैतबाज़ी
वक्त बेखबर जंगल की इक नदी-सा बहता गया
- आपका बहुत बहुत शुक्रिया सीमाजी.
पता नहीं अब तक आपके कलाम अनजान क्यों रहे ...हर एक शेर कमाल है किसकी बात करूँ अलग से..... सीधे-सादे शब्दों में गहरी बात
मुझे भी है इन्तेज़ार उम्रदराज़ हो जाने का
दिनभर बेरोज़गार रहूँ और दफ्तर न जाऊं .....
छोड़ गया है अपना कुनबा बीवीकी खातिर
अब्बा कहतें हैंकि मैं बड़े भाई पर न जाऊं...वाह
रोक लेती हैं मेरे कदम तेरी डबडबाई आँखें
अबजो जाऊं कभीतो तुझे बताकर न जाऊं..बहुत खूब राज जी मुबारकबाद
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