वेदना संवेदना अपाटव कपट
को त्याग बढ़ चली हूँ मैं
हर तिमिर की आहटों का पथ
बदल अब ना रुकी हूँ मैं
साथ दो न प्राण लो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
निश्चल हृदय की वेदना को
छुपते हुए क्यों ले चली मैं
प्राण ये चंचल अलौकिक
सोचते तुझको प्रतिदिन
आह विरह का त्यजन कर
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश गौरव बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
मौन कर हर वितथ पनघट
साथ नौका की धार ले चली मैं
मृत्यु की परछाई में सुने हर
पथ की आस ले चली मैं
दूर से ही साथ दो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये ।
--- दीप्ति शर्मा
Comment
आदरणीय Tanu Thadani जी
बहुत बहुत आभार ....यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें शुक्रिया
भाव -पूर्ण सुन्दर रचना ....
आदरणीय सूबे सिंह सूजान जी ... आदरणीय राजेन्द्र सिंह कुँवर फरियादी जी
बहुत बहुत आभार ....यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें शुक्रिया
बहुत बहुत बधाई हमारी शुभकामनायें
बधाई,दीप्ति जी,
अपरिमित अजेय का पल
मृदुल मन में ले चली मैं
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल
प्रकाश गौरव बन चलो अब
चलने दो मुझे ओ प्राण प्रिये।।
............
तुम हो दीपक जलो प्रतिपल............यह बात कुछ खास है
आदरणीय सतीश जी.. ,,, बहुत बहुत शुक्रिया ,, अपना आशीष यूँ ही बनाये रखियेगा .. आभारी हूँ .
आदरणीय गणेश जी.. ,,, बहुत बहुत शुक्रिया ,, अपना आशीष यूँ ही बनाये रखियेगा .. आभारी हूँ
आदरणीय हरीश जी.. ,,, बहुत बहुत शुक्रिया ,, अपना आशीष यूँ ही बनाये रखियेगा .. आभारी हूँ
आदरणीय अविनाश जी.. ,,, बहुत बहुत शुक्रिया ,, अपना आशीष यूँ ही बनाये रखियेगा .. आभारी हूँ .
वाह ... बहुत खूब .... खुबसूरत ख्याल ..... सुन्दर कहन ....... बेहतर पेशकश ...... बधाई दीप्ति जी ..... खुबसूरत रचना के लिए और माह के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार के लिए
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