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ऐ खुदा तुझे मैं मेरे दोस्तों मे शुमार करता हूँ 

ध्यान से सुन तुझे मैं मेरा राज़दार करता हूँ 

 

मुझको दे जाता है वो शख्स हमेशा ही धोखा 

फिर भी भरोसा मैं उसका बार-बार करता हूँ 

 

देगी तू मौत मुझे इक तो दिन थक करके  

ज़िंदगी इतना तो तुझपे एतबार करता हूँ 

 

मेरा जनाज़ा न उठाओ उनको ज़रा आने दो 

दो घड़ी और रुक के उनका इंतज़ार  करता हूँ 

 

वो पूछते हैं, "प्यार करते हो कितना हमसे "

कम ही होगा जो कहूँ बेशुमार करता हूँ 

 

कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर 

तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ  

 

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 20, 2011 at 10:39pm

कैसे मैं छोड़ दूँ घर बार सब तेरी खातिर तुझसे ही नहीं माँ से भी प्यार करता हूँ 

 

विक्रम श्रीवास्तव जी ग़ज़ल अच्छी लगी, अंतिम शेर बेहद खुबसूरत बन पड़ा है, दाद कुबूल करे |

Comment by आशीष यादव on October 19, 2011 at 6:56pm

बहुत ही सुन्दर भाव पिरोया है आप ने अपनी ग़ज़ल में| मुझे शिल्प का ज्यादा ज्ञान नहीं| अतः mai इस पर कोई कमेन्ट नहीं कर सकता| 

सुन्दर भाव वाली ग़ज़ल हेतु आप को बहुत बहुत बधाई|

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