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हरिगीतिका
(1)
मधु छंद सुनकर छंद गुनकर, ही हमें कुछ बोध है,
सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है, 
अब छंद कहना है कठिन क्यों, मित्र क्या अवरोध है,
रसधार छंदों की बहा दें, यह मेरा अनुरोध है ||


(2)
यह आधुनिक परिवेश इसमें, हम सभी पर भार है,
यह भार भी भारी नहीं जब, संस्कृति आधार  है,
सुरभित सुमन सब है खिले अब, आपसे मनुहार है, 
निज नेह के दीपक जलायें, ज्योंति का त्यौहार है ||


(3)
सहना पड़े सुख दुःख कभी मत, भूलिए उस पाप को,
यह जिन्दगी है कीमती अब, छोडिये संताप को,
अभिमान को भी त्यागिये तब, मापिये निज ताप को,    
तब तो कसौटी पर कसें हम, आज अपने आप को||

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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Comment

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Comment by Er. Ambarish Srivastava on October 2, 2011 at 12:50am

प्रभु आप आये मुस्कुराये सुमन सुरभित हैं खिले,

आभार भाई आपका जो मित्र बनकर हैं  मिले,

हरिगीतिका भी मुदित प्रमुदित अब यहाँ परिवेश है,

मधु धार छंदों की बहे अब आचमन ही शेष है ||

आपका स्वागत है आदरणीय भाई सौरभ जी ! हरिगीतिका के माध्यम से बहुत ही सुन्दर प्रतिक्रिया दी आपने !

Comment by आशीष यादव on October 2, 2011 at 12:03am

आदरणीय सर,

हरिगीतिका के रूप में सुन्दर रचना की आपने| इससे हमें हरिगीतिका भी समझने को मिल रही है| 
बागी जी का सुझाव भी मुझे बहुत अच्छा लग रहा है, इससे मुझ जैसे कम या ना जानकार भी समझ सकेंगे छंद विधान को|


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 1, 2011 at 9:45pm

आहा ! बहुत ही प्यारी रचना आपने पोस्ट किया है अम्बरीश भाई, एक मन में विचार कौधा है, क्यों ना एक समूह बनाते है "भारतीय छंद विधान" इसमें सभी भारतीय छंदों को उदाहरण सहित यथा संभव ऑडियो सहित विधान पर चर्चा हो, फायदा यह होगा कि सभी छंद विधान सहित एक जगह मिल जायेंगे |

क्या कहते है ?

Comment by Brij bhushan choubey on October 1, 2011 at 12:16pm

दुनिया  क्या है ?

कविताएँ है -बहुत बड़ा आसरा 

मन को समझाने का 

जब वह मचले !
एक संकलन है दुनिया यह

 ऍसी कविताओ  का 

जिनमे छंद बहुत ही थोड़े है  ,

स्वच्छंद छंद सबसे ज्यादा हैं |
ऐसे -

जिनकी पंक्ति पंक्ति पर

 भटके  दे दे लय टूटती है........ये दुनिया ऐसी है |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 1, 2011 at 12:02pm

अच्छा किया है आपने प्रभु, छंद में ही कुछ कहा,

हरिगीतिका का नाम है पर, सत्त्व हित सब हो रहा,

नव स्वर लिये तत्पर दिखें कवि, चाव ऐसा चाहिये,

तज मान सस्वर हों सभी जन, भाव ऐसा चाहिये  ॥

 

 

अनुरोध :

सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है,

उपरोक्त पंक्ति में वचन संबंधी यास की आवश्यकता प्रतीत हो रही है. कृपया उपकृत करें.

कृपया ध्यान दे...

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