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आदरणीय योगी जी व आदरणीय सौरभ जी की प्रेरणा से जनित पाँच कह-मुकरियां :


(1)
बड़े प्यार से जो दुलरावै|
हमको अपने गले लगावै|
प्रीति-रीति में हम हों बंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
_________________________


(2)

अलंकार से सज्जित सोहै|
रस की वृष्टि सदा मन मोहै  |
मिल जाता है परमानन्द |
क्यों सखि साजन? नहिं सखि छंद |

__________________________

(3)

परम संतुलित जिसका भार|
गुरु लघु रूप बना आधार!  
जन-जन को है जिसने मोहा|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि दोहा!

___________________________

 

(4)

मेल जोल जिसका है गहना|
जैसे लिखना वैसे पढ़ना|
पूरी होती जिससे आशा
क्यों सखि साजन? नहिं निज भाषा!

_____________________________

 

(5)

दुनिया में जो प्रेम बढ़ावै|
जिसका साथ जिया हर्षावै|
राजनीति जिस पर हो गंदी|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि हिंदी!
--अम्बरीष श्रीवास्तव

_____________________________

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on September 25, 2011 at 7:14pm

वाह वा
अम्बरीष जी,,

इस समय तो मुकरियों का बोलबाला है,,,,, आपने भी बहुत सुन्दर कह मुकरियाँ पढवाई, पढ़ कर मन आनंदित हो गया

जन-जन को है जिसने मोहा|
क्यों सखि साजन? नहिं सखि दोहा!

वाह क्या बात है
बधाई व धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 25, 2011 at 1:22pm

आदरणीय अम्बरीष भाईजी, आपने तो जैसे इस विधा की आत्मा से संग कर लिया है. एक शब्द में मैं इन मुकरियों पर अपनी भावना व्यक्त करूँ तो  - अद्भुत ! आपकी पाँच की पाँचों कह-मुकरियाँ हम सभी के लिये प्रदर्शक की तरह हैं. किस बंद की तारीफ़ करूँ और किस पर क्या कहूँ ! क्या ही महीन तंतु से सारा कुछ बुना है आपने श्रीमान् ! वाह !

इस जबर्दस्त, सफल और मार्गदर्शक प्रयास के लिये आपको बहुत-बहुत बधाई.

 

Comment by आशीष यादव on September 25, 2011 at 1:22pm

आदरणीय अम्बरीश सर जी,
पांचो कह-मुकरियाँ हमारी भाषा हिंदी की बढ़ोत्तरी में बहुत कुछ योगदान दे रही हैं|
कह-मुकरियाँ ज्ञानवर्धक भी हैं|
आपकी लेखनी को नमन है|

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