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ABHAAR SHANNO JI AND MANY MANY THANKS !!
खूबसूरत ख्यालात....गजल बढ़िया बन पड़ी है, अरुण.
परकटे परिन्दे की मानिंद बसर कर रहे आदमियों की कुलबुलाती हुयी भावनाओं को जब बालिश्त भर आकाश मिल जाए तो उसका घर्रीता गला स्वर साधने लगता है. वही घर्राहट इन शेरों में सुनायी दे रही है. चौदह अगस्त की प्रविष्टि के लिहाज से आपकी ग़ज़ल को देख गया और अपने स्वतंत्र हाथों का मेल जकड़े हुये पैरों से बरबस कराता रहा, बार-बार, देर तक. लेकिन सफल नहीं होना था, नहीं हुआ. पैरों की जकड़न उन्मुक्त हाथों से ईर्ष्या कर बैठी --
//झूठ की भीड़ की घुटन सच है,
ऐसे जीने से तो मरना अच्छा |//
बहुत खूब..
शेर का यह बिम्ब आपको भाया मैं कृतार्थ हुआ दुष्यंत जी | हार्दिक आभार !!
इस जगह माँ की याद आती है ,इस जगह थोडा ठहरना अच्छा | बरसों बाद अपने गाँव से गुज़रो तो ऐसी ही फीलिंग आती है....बहुत उम्दा अभिनव जी, दिल मे उतरती है ये पंक्तियाँ
thanks a lot virendra jee you comments are as always couragious .
आभार बागी जी आपकी प्रतिक्रिया मेरी प्रोत्साहन है | आप सबके स्नेह से कलम चलती और लिखती रहे यही कामना है |
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