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ऊँचाई ....
 
कितना
बौना हो जाता है
इंसान
अपने ही में
खो जाता है इंसान
अक्सर
ऊँचाई पर बेगाना
हो जाता इंसान
ऊँचाई
धन के अभिमान की
किसी पर्वत के शिखर से
कम नहीं होती
अभिमान के चश्मे से
अभिमानी को
हर इंसान
बौना नज़र आता है
यथार्थ में तो
वो हर इंसान से कट जाता है
रह जाता है अकेला
जब वो ऊँचाई पर
वो अपने आप में
कितना बौना हो जाता है
इसीलिये ऊँचाईयाँ
धरातल से बहुत दूर होती हैं
व्योम के क़रीब होती हैं
क्षितिज शून्य होते हैं
सायों के हुजूम होते हैं
तन्हा ज़िंदगी होती है
सच
ऊँचाई पर
कितनी तन्हाई होती है
 
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 26, 2020 at 8:58pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब, सृजन के भावों को समृद्ध करती आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया का दिल से शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on June 21, 2020 at 3:06pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

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