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-"देखो ये लाल-पीले आकाश मेँ उड़कर जाते पंछी कितने प्यारे लगते हैँ न?"
-"हाँ, भइया। आप ठीक कहते हो। ", उसने कुछ बेरूख़ी से कहा।

-"पर तूने क्यूँ चहकना बन्द कर रखा है आजकल, मेरी चिरैया?
कुछ बता तो क्या बात है?"

-"अब भइया मैँ क्या कहूँ ? आप परेशान हो जाओगे।"

-"तू बता तो बाकी सब मुझ पर छोड़।"
"भइया मुझे हॉस्टल मेँ नही रहना। मेर दम घुटता है वहाँ। वो सारी लड़कियाँ मुझे डाँटती रहती हैँ मुझे बात भी नही करने देती उन्हे डिस्टर्ब होता है न।
मैँ बाहर भी नही जा पाती। कभी कभी लगता है किसी ने मुझे नज़रबन्द कर दिया हो। कैद होकर रह गई हूँ।
पिँजरोँ मेँ चिरैया कैसे उड़ेगी?"

उसकी डबडबाई आँखोँ से आँसू का एक कतरा गिरता उससे पहले ही उस अनन्त सागर को अपनी बाँहोँ मेँ समेटकर रोकते हुए उसका सारा दर्द अपने अन्दर खीँच लिया उस भाई ने और उसे आश्वस्त करते हुए बोला-
"अब तुझे कभी खुद से दूर नही करूँगा।"

और गुड़िया भाई का हाथ थामे उस लाल-पीली शाम मेँ खुद को अनन्त आकाश मेँ उड़ते पँछियोँ सा आज़ाद महसूस करने लगी।

"पूजा"
"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by Shyam Narain Verma on December 18, 2014 at 4:10pm

बहुत ही लाजवाब रचना है , बधाई।

Comment by Hari Prakash Dubey on December 18, 2014 at 11:35am

पिँजरोँ मेँ चिरैया कैसे उड़ेगी?" सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई पूजा जी !

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