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प्लस्टिक की श्रद्धा (लघुकथा) रवि प्रभाकर

“अरे ये क्या, प्लास्टिक का हार ?” काम से वापिस आए पति के थैले में से खाने का डिब्बा निकालते हुए उसने पूछा
“हां, मां-बाबू जी की फोटो पर रोज फूलों का हार चढ़ाने की बजाए ये हार पहना दो, मुरझाएगा भी नहीं और मैला होने पर धुल भी जाएगा।” उसने एक ही चारपाई पर फटे कंबल के सहारे ठंड से संघर्ष करते हुए अपने तीनों बच्चों की ओर देखकर कहा

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 28, 2014 at 7:49pm
जब से पूजा कराना व्यापार हो गया है
फूलों की जगह प्लास्टिक का हार हो गया है ॥
फूल दिखते नहीं बहुत ही मंहगें हो गए
रेट में फल सब्जियों सभी को मात कर गए ॥
इस विवशता को क्या कहिये देखते रह गए
आप भले हैं साहित्य में स्थान तो दे गए ॥
इतनी अच्छी प्रस्तुति पर और क्या कहें प्रिय रवि जी , सम्मान में यह पंक्तियाँ बस , सादर ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2014 at 6:37pm

रवी जी

यह प्लास्टिक से अधिक गरीबी और बेबशी की श्रद्धा  अधिक लगती है i माँ बाप तो दूर अब तो भगवान भी फूलो को तरसते है  साहित्यिक दृष्टि से इस ' गुणीभूत व्यंग'  का समादर करता हूँ i

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