हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
तुम कलकल कलरव की हो गान
हो लिपटे बेलों की वितान
तुम वसुन्धरा की शोभा हो
हे आन मान सरिता महान
तुझमे दिखता जीवन सारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
तुझमे निज-छवि लखते उडगन
यह विम्ब देख हर्षाता मन
सुषमा ऐसी नयनों मे बसा
रहता बस मे किसका तन मन
दिखता तुझमे चन्दा प्यारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
हे मिट्टी की सोंधी सुगन्ध
बाँधे सबको जो पाश बन्ध
तुम अद्भुत और अलौकिक हो
बाँधेगी तुमको कौन छन्द
छन्दों की नही ऐसी कारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
हे रश्मि प्रभा मे श्वेत जाल
अनुपम मनोहारी चन्द्रभाल
उर्वशी रेणुका सी लगती
(तुम स्वयं अप्सरा सी लगती)
यौवन धारे कंचुक विशाल
वह तुमसे कौन नही हारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
आशीष यादव
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बढिया
प्रयासरत रहें आशीष भाई
आदरणीया Dr.Prachi Singh जी सराहना हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद।
आदरणीय Rana Pratap Singh जी, आदरणीय arun kumar nigam जी, आदरणीय vijay nikore जी, सराहना हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद।
आदरणीय राणा जी, आपका सुझाव सर-आँखों पर।
आदरणीया Vasundhara pandey जी, आदरणीया Meena Pathak जी, aap logo ko kavita pasand aayi, mai dhanya hua. bahut bahut धन्यवाद
आदरणीय 'विजय मिश्र जी, धन्यवाद
आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी, धन्यवाद
इस अच्छी रचना के लिए साधुवाद, आशीष जी।
सादर,
विजय निकोर
प्रिय आशीष जी ..बहुत सुन्दर शब्द चयन, सरिता के सौंदर्य का प्रवृत्ति का बहुत सुन्दर चित्रण... हार्दिक बधाई
*बाँधेगी तुमको कौन छन्द.....यहाँ बाँधेगी उचित नहीं लग रहा, बाँधेगा होना चाहिये..
*कविता में १६ के मात्रिकता का निर्वहन आसानी से किया जा सकता था..
शुभेच्छाएँ
प्रिय आशीष जी, सुकोमल शब्दों में सरिता का सुंदर सौंदर्य-वर्णन हुआ है. बधाई.....आदरणीय राणा जी से सहमति भी रखता हूँ......
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