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तुमको जो प्रतिकूल लगे हैं
वे हमको अनुकूल लगे
और तुम्हें अनुकूल लगे जो
वे हमको प्रतिकूल लगे...............

हम यायावर,जान रहे हैं
फूल कहाँ पर काँटे हैं
तुमने संचय किया न जितना
हम तो उतना बाँटे हैं
तुम नत मस्तक जिसके आगे
हमको वे सब धूल लगे.............

तुम ठुकराते,हम अपनाते
फर्क यही हम दोनों में
कंकर पत्थर पर हम सोते
तुम मखमली बिछौनों में
भौतिक सुख हैं नाग विषैले
चन्दन हमें बबूल लगे..................

आये थे क्या लेकर,सोचो
क्या लेकर तुम जाओगे
जो कुछ नामे यहाँ करोगे
जमा वहाँ तुम पाओगे
जीवन की सारी सच्चाई
तुमको सदा फिजूल लगे..................

मेरा-मेरा कह कर तुमने
जग को किया पराया है
कौन हितैषी,कौन मित्र है
तुम्हें समझ ना आया है
तुमने मारे जितने पत्थर
हमको सारे फूल लगे ..............

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट,विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
(स्वरचित व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2013 at 6:40am

आस-पास के दायरे से प्रतीकों को उठाना और गीतात्मक प्रवाह देकर भाव संप्रेषित करना.. यह किसी रचनाकार के लिए सदा से एक चुनौती रही है. कारण कि या तो शब्द सधे हृदय में उतरते जाते हैं क्योंकि उनका उत्स मालूम होता है या फिर रचना सपाटबयानी का पर्याय सी लगती है.

इन संदर्भों में आपकी प्रस्तुत रचना पहले वाले अर्थ को अधिक जीती दीखती है. इस हेतु बहुत-बहुत बधाइयाँ, आदरणीय.

मेरे कहे को सुन्दरता से अभिव्यक्त करती है आपकी प्रस्तुत पंक्तियाँ - 

आये थे क्या लेकर,सोचो
क्या लेकर तुम जाओगे
जो कुछ नामे यहाँ करोगे
जमा वहाँ तुम पाओगे.. .   

कहना न होगा कि पहली दो पंक्तियाँ कहां की उपज हैं. किन्तु, मजा आता है इस अंतरे के आखरी पदांश जिसमें आपने नामे शब्द का बड़ा ही सटीक और बहुत सुन्दर प्रयोग किया है.  बहुत खूब, आदरणीय, बहुत खूब !  इस शब्द का ऐसा व्यवस्थित प्रयोग रोमांचित करता है. आपका कार्य-क्षेत्र आपसे अनुमोदन पा गया है, हुज़ूर !  .. :-)))

यह अवश्य है कि भाव-संप्रेषण के क्रम में गीतात्मक रचनाओं का यह भी एक प्रकार है जहाँ भाव सहजता से बह चलते हैं. पाठकों की वैचारिकता को, किन्तु, तुलनात्मक विशेषणों के वृतों की परिधि का अतिक्रमण नहीं करने देना इन रचनाओं का पहला दायित्व होना चाहिये.

सादर 

Comment by vijay nikore on May 2, 2013 at 9:12pm

मनभावन चयन !

साधुवाद, अरुण जी ।

 

सादर,

विजय निकोर"

Comment by manoj shukla on May 2, 2013 at 8:33pm
प्रत्येक पंक्तियाँ सुन्दर हैं ......आदर्णीय.. ..बधाई स्वीकार करें
Comment by वेदिका on May 2, 2013 at 8:13pm

बहुत सुन्दर गीत आदरणीय अरुण जी! शुभकामनायें

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 2, 2013 at 8:05pm

आ0 अरून निगम भाई जी,  सच्चाई के परिवेश में अतिसुन्दर मधुर गीत।  तहेदिल से बहुत बहुत हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by विजय मिश्र on May 2, 2013 at 6:42pm

धर्माधर्म की तुला पर सदा से दो वर्ग भिन्न पलड़ों पर चढ़ अनुकूलता-प्रतिकूलता का मर्म बताते रहे हैं और वही ढाक के तीन पात , सब कुछ वहीं का वहीं , न वो सुधरने वाले हैं और ना ही हम मानने वाले . गीत का प्रवाह मन मोहने वाला है ,साधुवाद अरुणजी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2013 at 5:14pm

आदरणीय अरुण जी 

बहुत सुन्दर गीत लिखा है.... मुख्य पंक्तियाँ ही हृदय के बहुत करीब लग रही हैं. और हर बंद सहज सरल प्रवाहमय सार्थक है..हार्दिक बधाई इस सुन्दर गीत सृजन पर 

जो कुछ नामे यहाँ करोगे..........नामे शायद टंकण त्रुटि है?.........इसे यदि //जो कुछ नाम यहाँ कर लोगे// ऐसे लिखा जाए तो? यह भी १६ -१४ मात्रिक क्रम में हो जाएगा. सादर.

Comment by Shyam Narain Verma on May 2, 2013 at 4:42pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..
Comment by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 1:49pm

मधुरम-मधुरम । बहुत ही सुंदर, मधुर, मीठी और क्‍या कहूं, सच्‍चाईयों से दो-चार कराती बहुत ही सरल शब्‍दों में पुष्‍ट रचना ।  इस रचना में जो सादगी है, सच्‍चाई है वो शब्‍दों की कलाबाजी से काफी दूर एक निरभ्र आकाश के चंदोवे तले हमें ले जाती है । सच्‍ची रचनाएं ऐसी ही होती हैं कि पढ़ते ही कंठस्‍थ हो जाए, किसी गूढ़ बिंब की कोई बाजीगरी नहीं बिल्‍कुल निर्मल सोता, बहता पानी । आपको सादर नमन शब्‍दों इस सादगी और कहन की सच्‍चाई पर, सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 2, 2013 at 12:02pm

तुमको प्रतिकूल लगता,  हमको वो अनुकूल

तुमको भावे फूल  जो,  हमें लगे वह शूल |  - ऐसे भावो में पगी सुन्दर रचना के लिए बधाई भाई अरुण किमर निगम जी 

 

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