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कौन मजबूत? कौन कमजोर ?

इम्तिहान

एक दौर

चलता है जीवन भर !

सफलता

पाता है कोई

कभी थम जाये सफ़र !

कमजोर

का साथ

देना सीखा,

ज़रुरत

मदद की

उसे ही रहती .

सदा साथ

नर का

देती रही ,

साया बन

संग उसके

खड़ी है रही ,

परीक्षा की घडी

आये पुरुष की

नारी बन सहायक

सफलता दिलाती ,

मगर नारी

चले मंजिल की ओर

पीछे उसके दूर दूर तक

वीराना रहे ,

और अकेली

वह इम्तिहान में

सफलता पाती !

फिर कौन मजबूत?

कौन कमजोर ?

दुनिया क्यों समझ न पाती ?

(मौलिक व् अप्रकाशित)

शालिनी कौशिक


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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 15, 2013 at 8:41pm

मगर नारी

चले मंजिल की ओर

पीछे उसके दूर दूर तक

वीराना रहे ,

और अकेली

वह इम्तिहान में

सफलता पाती !

फिर कौन मजबूत?

कौन कमजोर ?

दुनिया क्यों समझ न पाती ?

बहुत सही सवाल उठाए हैं.. 

एक औरत जब मंजिल की ओर बढती है तो उसका संघर्ष अकेला ही होता है.. 

क्योंकि उसकी जीत और हार से कोई और नहीं जुड़ा होता.. ये सफर सिर्फ उसका निर्णय होता है, अपनी ज़िंदगी में जो वो चाहती है , वो पाने के लिए.

समाज में सभी के साथ परिस्थितियाँ एक सी नहीं होती, फिर भी यह एक विशेष नारी समुदाय भली प्रकार महसूस करता है...

इस अभिव्यक्ति के लिए बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on April 15, 2013 at 7:44pm

आदरणीया शालिनी जी आपको इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई!

आप तो प्रबल हस्ताक्षरों में से एक हैं इसलिए आपकी रचना पर कुछ कहना उचित तो नहीं फिर भी इतना कहना चाहूंगा कि

//कमजोर

का साथ

देना सीखा,//

क्या पंक्ति को तोड़ना आवश्यक था?

दूसरी बात एक निवेदन करना चाहूंगा कि या तो कविता में विराम चिन्हों का प्रयोग किया जाना चाहिए अथवा पदो के बीच स्पेस दिया जाना चाहिए जिससे कविता के प्रवाह और बात की समाप्ति व प्रारम्भ को पाठक आसानी से समझ सके।

आशा है आप मेरे इस दुस्साहस को क्षमा करेंगी और मेरे कहे को अन्यथा न लेंगी।

सादर!

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 15, 2013 at 4:40pm

नर का

देती रही ,

साया बन

संग उसके

खड़ी है रही ,

परीक्षा की घडी

आये पुरुष की

नारी बन सहायक

सफलता दिलाती ,

मगर नारी

चले मंजिल की ओर

पीछे उसके दूर दूर तक

वीराना रहे ,

और अकेली

वह इम्तिहान में

सफलता पाती !

फिर कौन मजबूत?

यक्ष प्रश्न है 

आदरणीया शालिनी जी 

सादर बधाई. 

Comment by ram shiromani pathak on April 15, 2013 at 3:13pm

 बहुत सुन्दर बधाई शालिनी  जी !

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 15, 2013 at 2:23pm

आदरणीया शालिनी जी सादर
इस रचना के लिए बधाई किंतु

इन पंक्तियों से सहमत नहीं हूँ

मगर नारी
चले मंजिल की ओर
पीछे उसके दूर दूर तक
वीराना रहे ,
और अकेली
वह इम्तिहान में
सफलता पाती !

ये तो उस समय भी नही हुआ जिस समय नारियों को केवल घर मे ही रहना पड़ता था
हर समय उसके जीवन साथी ने उसका साथ निभाया होगा
नहीं तो वो सारी जिंदगी घुट घुट के कैसे जीती
कुछ एक को देख कर हम सभी को ऐसा तो नहीं कह सकते हैं
हाँ सहानुभूति रखना ठीक है पर नर पर आरोप लगाना के वो साथ नही देता ग़लत लगा
कदम कदम पर वो साथ देता है और सलाह मशविरा भी करता है
नहीं तो सारी नारियाँ एकाकी जीवन बिताते बिताते नीरस हो चुकीं होती
माता पिता उनकी शादी ही नहीं करते ..........आख़िर उनसे ज़्यादा कौन जान सकता है ये पीड़ा
सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 15, 2013 at 10:38am

इम्तिहान का दौर तो जीवन रूपी संघर्ष में सदैव ही चलता रहता है, उसको पार कर आआगे बढ़ते रहना होता है |

कमजोर कोई नहीं होता, मन में आत्म-विश्वास जगा सापेक्ष सोच प्रयत्नशैल रहने से और सभी से सहयोग हेतु 

तालमेल बिठाकर खास तौर से जीवेन साथी से, सफलते प्राप्त की जा सकती है | प्रस्तुति के लिए बधाई शालिनी कौशिक जी 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 15, 2013 at 10:19am

आ0 शालिनी कौशिक जी,  प्रणाम!   बहुत सुन्दर..! बधाई स्वीकार करें।  सादर,

कृपया ध्यान दे...

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