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जो मेरे कभी थे वो दूर हैं ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

11212         11212       11212       11212 

 

हुये  रोशनी के प्रतीक जो , वो अँधेरों से  हैं  घिरे  हुये

ये कहो नही, जो कहे अगर, तो ये जान लें कि गिले हुये

 

न ही दर्द  की कोई जात है, न ही  शादमानी की कौम है

ये सियासतों की है साजिशें , जो  हैं  बांटने को पिले हुये

 

कोई क्या करे, कि निजाम में, है घुटन बहुत जो भरी हुई

कभी सोच कैद किये मेरे , कभी  होठ भी थे  सिले  हुये

 

मेरा  गम नही, कोई हंस है ,किया नीर क्षीर अलग अलग

जो मेरे  कभी थे वो दूर हैं , लगे  ग़ैर  थे वो  मिरे हुये

 

है हवा  भरी हुई   ह्र से , है  फ़िज़ा  फ़िज़ा  हुई  शाजिशें 

मुझे उन गुलों की भी फ़िक्र है, लगे आज हैं जो खिले हुये

 

**************************************************************

 मौलिक एवँ अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 7, 2014 at 9:12pm

बहुत शानदार ग़ज़ल कही है 

जीवन की बहुत गहरे छूती सच्चाइयों को पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है 

इस कठिन बह्र को साध कर प्रस्तुति देने के लिए विशेष बधाई 

सभी अशआर पसंद आये

शुभकामनाएं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 3, 2014 at 5:34pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपने मुक्त कण्ठ की सराहना की ,  रचना कर्म सार्थक हुआ , सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 2:37am

आपकी इस ग़ज़ल की मैं किन शब्दों में प्रशंसा करूँ, भाईजी ! जिस ऊँचाई पर यह ग़ज़ल पहुँच रही है, वहाअपके अबतक गहन के प्रयासों का ही नतीजा है. इन अश’आर पर आपको विशेष बधाई दे रहा हूँ.

कोई क्या करे, कि निजाम में, है घुटन बहुत जो भरी हुई
कभी सोच कैद किये मेरे , कभी  होठ भी थे  सिले  हुये

मेरा  गम नही, कोई हंस है ,किया नीर क्षीर अलग अलग
जो मेरे  कभी थे वो दूर हैं , लगे  ग़ैर  थे वो  मिरे हुये

है हवा  भरी हुई  ज़ ह्र से , है  फ़िज़ा  फ़िज़ा  हुई  शाजिशें
मुझे उन गुलों की भी फ़िक्र है, लगे आज हैं जो खिले हुये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 5:22pm

आ. सचिन भाई , ग़ज़ल की तारीफ के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥ 

Comment by Sachin Dev on March 26, 2014 at 2:52pm

आदरणीय गिरिराज जी, बेहद खूबसूरत गजल पेश की आपने हार्दिक बधाई आपको ! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 6:39pm

आदरणीय आशुतोष भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के ल्लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 6:38pm

आदरणीय अभिनव अरुण भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति आनन्द दायक है , आपका बहुत आभार ॥

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 5:42pm

ही दर्द की कोई जात है, न ही शादमानी की कौम है
ये सियासतों की है साजिशें , जो हैं बांटने को पिले हुये
है हवा भरी हुई ज़ ह्र से , है फ़िज़ा फ़िज़ा हुई शाजिशें
मुझे उन गुलों की भी फ़िक्र है, लगे आज हैं जो खिले हुये..आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..काफ्फी अरसे तक आपकी बेहतरीन रचनाओं से बंचित था आज फिर आपकी शानदार ग़ज़ल पढने को मिली ..ये दो शेर तो मुझे बेहद पसंद आये ..सादर ..देर से ही सही होली की शुभकामनाओं के साथ

Comment by Abhinav Arun on March 25, 2014 at 2:28pm

हर एक शेर उम्दा आदरणीय हार्दिक बधाई इस मुकम्म्ल ग़ज़ल के लिए !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 25, 2014 at 7:10am

आदरणीय गणेश भाई , आपकी उपस्थिति मात्र ही मेरे लिये खुशी और उत्साह का कारन है , उपर से आपकी सराहना भी मिली , दोहरी खुशी देने के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

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