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खुशियाँ जब जब आई हैं  
मैने मुट्ठी भर भर बिखरा दिया है चारो तरफ 
इस आशा से और दुवाओं से 
कि लहलहाए खुशियां की हरियाली चारो दिशा|... 
कल मुस्कुराते होंगे चेहरे कई  
जिनकी मुट्ठी में होंगे खुशियों के खजाने

और उनको देख मुस्कुराते 
कतिपय थिरकेगी 
मेरे चेहरे पर भी एक मुस्कान |
मुझे अपनी झोली की फिकर भी नहीं |
मेरे हाथ खाली है 
और देखो मेरी झोली में अब कुछ भी नहीं,,,,..

अब मुझे नदी होने का सम्मान नहीं चाहिए
कि  बहती रहूँ बिन कुछ मांगे 
और निचुड्ती जाऊं  बूंद बूंद तक.....
न ही नदी कह कर देना अभिशाप  
कि आये जो धो ले हाथ 
और मेरे पवित्र तट पर बिखेर दे कीचड़ का सैलाब |

देखो ध्यान से     
कि अब मैं एक बूँद पानी भी नहीं
कि ठहर जाऊं किसी की पलक के किनारे ...
या कि टपक कर गिर जाऊं 
आंसू बन किसी की आँखों के सहारे 

आज मत पूछो मुझसे
जिंदगी के हिसाब में 
क्या खोया क्या पाया है मैंने
हाथ खाली है या भर आया है 
आज मैंने अपनी मुट्ठी कस  ली है| ............... डॉ नूतन डिमरी गैरोला 

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Comment by बृजेश नीरज on March 20, 2013 at 8:17pm

बहुत बेहतरीन! लाजवाब! नदी के दर्द को जिस खूबसूरती से आपने उकेरा है उसकी प्रशंसा किया जाना संभव नहीं!

Comment by Yogi Saraswat on March 19, 2013 at 3:07pm

अब मुझे नदी होने का सम्मान नहीं चाहिए
कि  बहती रहूँ बिन कुछ मांगे 

और निचुड्ती जाऊं  बूंद बूंद तक.....
न ही नदी कह कर देना अभिशाप  
कि आये जो धो ले हाथ 
और मेरे पवित्र तट पर बिखेर दे कीचड़ का सैलाब |
कभी न कभी हर चीज की एक अति आती ही है और यही सब हमारी नदियों के साथ हो रहा है ! इसी व्यथा को आपने बहुत खूबसूरत शब्दों में बयान किया है
Comment by ram shiromani pathak on March 18, 2013 at 7:41pm
देखो ध्यान से     
कि अब मैं एक बूँद पानी भी नहीं
कि ठहर जाऊं किसी की पलक के किनारे ...
या कि टपक कर गिर जाऊं 
आंसू बन किसी की आँखों के सहारे !!!!!!!!!!

आदरणीया नूतन जी  बधाई।

Comment by vijay nikore on March 18, 2013 at 10:57am

आदरणीया नूतन जी:

 

देखो मेरी झोली में अब कुछ भी नहीं,,,,..

 

दूसरों को इतनी खुशियाँ देने के बाद

अपनी झोली खाली भी हो तो भी भरी ही है!

 

एक और शानदार कविता के लिए बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

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