कांवर श्रवण कुमार की
लेखक : देवेन्द्र दीपक
डी-15,शालीमार गार्डन
कोलार रोड ,भोपाल -42
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प्रकाशक : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन
एन -77,कनाट सर्कस ,नई दिल्ली -110001
ISBN : 978-81-7309-854-3 (PB)
प्रथम संस्करण :2015
मूल्य : 80/-
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक देवेन्द्र दीपक जी द्वारा रचित काव्यमय कृति काँवर श्रवण कुमार की ,नाट्य साहित्य की धारा में अपना रंगमंचीय प्रभाव कायम करता है । श्रवण कुमार के बारे में बहुत कम बातों की जानकारी मिली है अब तक और ये नाटक एक अलग ही पहलु को स्वयं में समेटे हुए है। गहरे भावबोध का संवहन करते हुए गहन रचनात्मकता का निर्वहन देखने को मिला । " हर हर गंगे " की ध्वनि में बौद्धिक आवेगों का नियंत्रण मुग्धकारी है ।
इस काव्यमय प्रस्तुति में श्रवण कुमार के जीवन में घटित कुछ अनछुए प्रसंगों का ठोस विश्लेषण है जो परम्पराओं को, संस्कृति को समझने में दिशादर्शक हो सकता है । हिन्दी रंग क्षेत्र में यह प्रसंग ताजा हवा का एक हल्का झोंका - सा है । कृति को पढ़ते हुए , नाटक संदर्भ में भारतेन्दु जी के नाटकों की श्रृंखला अनायास ही याद आ गयी । उनके नाटकों में भी कवित्तव प्रमुख रूप से विद्यमान हुआ करता था । पुस्तक की शुरूआत में ही मंत्रमुग्ध करती हुई शंखनाद - सी ध्वनि हृदय में तरंगित हुई ।
युद्धवीर
दानवीर
धर्मवीर
इन वीरों के साथ
सेवावीर को
जोड़े हम
जुटे हम
वृद्धों
अशक्तों के हित
मुर्च्छित जड़ता को
तोड़े हम .........
अंतर्मन में घनीभूत होती ये पंक्तियाँ बाहरी वातावरण से आपको हटा कर मंच पर मानों केन्द्रित कर जाती है ।
भारत देश महान जय गंगे की ...... टेक की लयबद्धता में । गजब का सम्मोहन , वातावरण का लयात्मक चित्रण चित्रित हो पाठकों को स्वयं में दर्शक होने के भान से दृश्यों में बाँध जाता है । नाटक के प्रथम दृश्य में विद्या और श्रवण कुमार का संवाद है । यहाँ आत्मकेंद्रित नारी चित्रित हुई है जो आज के वर्तमान काल की स्त्रियों को भी रेखांकित करती है । मानवीय भावनायें युगों के साथ क्यों नहीं बदलती है ? कल यही नारी चरित्र की विसंगति " श्रवण कुमार " के होने का कारण बनी ।
वर्तमान में " विद्यायें " तो समाज में विद्यमान है लेकिन अब यह विसंगतियाँ " श्रवण कुमार " का निर्माण नहीं करती । भोग्यवाद हावी हो चुका है । अब श्रवण के लिए पत्नी पहली जिम्मेदारी मानी जा रही है , इसलिए " विद्या " वृद्धाश्रमों " को जन्म देने का कारण बनती है । आज के श्रवण कुमार अपनी आत्मबल में कमी के कारण भोग्य साधन के समक्ष घुटने टेक रहे है । एक ही शहर में कई वृद्धाश्रम चलाये जा रहे है । आज भारत की सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था संघर्षमय स्थिति में है , ऐसे वक्त में इस नाटक का लिखा जाना व मंचन होना और अधिक प्रासगिक हो उठता है । यहाँ एक विस्तृत कथा धरातल को काव्य नाटिका में समेटा गया है । पात्रों के परिचय के साथ उनका रूप विन्यास ,पहनावा व मंच का दृश्य पढ़ते हुए आँखों में सजीवता आभासित करता है ।
श्रवण कुमार का पत्नी से संवाद पंक्ति दर पंक्ति, पति पुरूष मन के आर्तनाद को जीवित करता है । पत्नी को समझाते हुए कई बार श्रवण रोष में , तो कई बार प्रेम में , तो कई जगहों बिलखते से कातर स्वर में ,काँपती हुई उम्मीद का आरोह - अवरोह सँभालते हुए , उद्वेलित मन के गहन तलों से उतरती मानसिक तरंगों को प्रदर्शित करते है ।
स्त्री सुख वासना और माता - पिता के प्रति धर्म - भावना ,दोनों संघर्षरत है । किसे चुने ?
आखिर धर्म -भावना हावी होती हुई जीत जाती है । इसी के साथ गृहस्थ टूट जाता है और मन क्षुब्ध ।
पत्नी वियोग यहाँ श्रवण कुमार के संवादों में ऊभर कर आया है । ---
आशा थी अपेक्षा थी
विवाह किया तो
शक्ति का संवर्धन होगा
एक की कमी को
दूसरा करेगा पूरी ,
दोनों मिलकर करेंगे सेवा
सेवा की गुणवत्ता में होगा सुधार ........
श्रवण कुमार अपनी पत्नी को सहयोगी मान उससे जिम्मेदारियों को बाँटने की अपेक्षा रखते थे।उनसे सहचर्य की अभिलाषा थी।जो इन पंक्तियों में निहित है कि,
सोचा था
मिलाकर हाथ
प्रश्नों के उत्तर खोजेंगे साथ साथ
भीगी रस्सी- सी तन गई तुम
हाय, एक महा प्रश्न बन गई तुम!
हाय, मै अकेला
मै निपट अकेला......
वियोग के इस काल में गुरू का आगमन मृतप्राय जीवन में जैसे सांस फूंक देता है। हताशा के क्षणों में गुरु का संन्मार्ग टूटे हुए ,हतोत्साहित ,जीवन से विमुख शिष्य को जीवन की गति प्रदान करता है। इस दृश्य में गुरु -आचरण स्तुत्य है।वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों के हास होते हुए गुरु -शिष्य सम्बन्ध जहां निज -स्वार्थ ,शिक्षा- नीति का हावी होने का युग में इस तरह के प्रासंगों का लेखन बेहद जरूरी हो उठता है । गुरु के हाथों श्रवण कुमार को अभिमंत्रित कांवर दरअसल प्रतीक है सन्मार्ग का भार उठाना ।संस्कृति और सदाचरण का यह कांवर प्रतीक है अपने कर्म ,आस्था और विश्वास का। गुरु ज्ञान रूपी हताशा की अंध कोठरी से श्रवण को निकालकर तीर्थयात्रा का लक्ष्य देते है और यही लक्ष्य श्रवण कुमार को मिथक पुरुष बना जाती है। अगर उस हताशा के क्षण में गुरु पदार्पण ना हुआ होता ,तो क्या श्रवण मुक्ति पाते ? श्रवण ,श्रवण कुमार बन पाते ? नहीं , इसलिए यहाँ गुरु की श्रेष्ठता ,उनकी उपस्थिति की महत्ता बढ़ जाती है।
आचार्य का तीर्थों की महिमा बताना , प्रस्तुत संवाद पाठक को रोमांचित करने की माद्दा रखता है। बड़ा कठिन अनुष्ठान जैसे प्रश्न पर आचार्य का उसे असंभवता की दुश्चिंता से निकाल कर ,दृश्य उत्साहवर्धक है । एक पाठक जो दृश्यों में बंधकर खो जाता है उसके मन को ,आत्मबल में संवर्धन होते पाता है ।
प्रत्येक दृश्यान्त में कथा-श्रृंखला का जुड़ाव एकाग्रचित्तता को कायम रखता है ।
अगले दृश्य में अभिमंत्रित कांवर लेकर जब वे विदा होने का अनुष्ठान करते है तो सामाजिकता का अलग ही रूप नज़र आता है ।
सभी गाँव वासी अपने -अपने घर से तीर्थफल की कामना करते हुए अर्पण योग्य चढ़ावा लाते है ।
यहाँ हमारी विलुप्त होती सामाजिक सहचर्य को जीवित होते हुए पाया है मैंने ।
कई दशकों पूर्व तक ऐसा होता रहा था कि परदेश को विदा होने वाले के हाथों ,वहाँ रहने वाले अपने प्रियजन ,स्वजनों के लिए सनेश स्वरुप घर-घर से पोटलियाँ बंधकर आ जाती थी ,जिसमे चावल, चिवड़ा, बड़ी ,अचार मुंग-मोठ बंधे रहते थे और स्नेहवश वो उनके द्वारा ले जाया भी जाता था।
हमारी इस स्वस्थ परम्परा का विलोपन हुआ है । शहरीकरण मानसिकता ने सामजिकता पर भी कुठाराघात किया है । मानवीय संवेदनायें अब पहले-सी निश्छल नहीं रही। स्वार्थ हर रिश्ते पर हावी हो रहां है।
पहले "विद्या " जैसी पात्रा अपवाद स्वरुप ही हुआ करती थी लेकिन आज घर -घर में "विद्याएँ " निज- स्वार्थ को परितुष्ट करने के लिए प्राण-प्रतिष्ठित है ,जो चिंतनीय है। ऐसे वक्त में इस नाटक से मुझे बहुत सी अपेक्षाएँ है ,क्योकि इस नाटक के हर अंश में एक तीव्र विचारोतेजक कथ्य को पाया है जो असरकारी है ।
श्रवण कुमार का शील प्राप्ति का आवाहन ,एक रोमांच -सा दृश्य कायम करता है ।मानव का सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करता हुआ अध्यात्मिक दृश्य अवलोकित हुआ है ।
तर्क से परे है आस्था
अपने आत्म में आस्था
अपने अभीष्ट में आस्था अपने इष्ट में आस्था
आस्था में गुरुत्वाकर्षण है
गुणाकर्षण भी है आस्था में
आस्था सजग प्रहरी !
नकार को मंडप में घुसने नहीं देती .......
आज की गुमराह होती पीढ़ी के लिए ,जीवन में आस्था को संचित करती यह नाटक संजीवनी का काम करेगी ऐसा मेरा मानना ही नहीं अटूट विश्वास है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने स्वयं में भी कई अनास्थाओं पर आस्था को पुनर्संचित होते हुए पाया है।
"नाट्यशास्त्र " के प्रणेता भरत मुनि ने नाटक को दूनिया में तीनो लोकों के भावों का अनुकरण करने वाला ऐसा माध्यम बताया है जिसमे समस्त ज्ञान , शिल्प, कला , विद्या या अन्य कार्य सन्निहित है ।रंगमंच को पंचम वेद तक की संज्ञा दी गयी है ।
श्रवण का माता -पिता को तीर्थों में आचमन , स्नान करवाते हुए दृश्यों में धर्म के प्रति आस्था ,संस्कार को सार्थक विन्यास मिला है । गाँव के लोगों द्वारा दिया हुआ अर्पण योग्य सुपारी, दीपदान इत्यादि दृश्यों में गहन और सघन प्रभाव ग्रहण योग्य है ।
नाटिका का दृश्य ,जिसमे श्रवण कुमार एक नगर में प्रवेश करते है ,यहाँ श्रवण के मन के साथ दर्शकों में भी कौतुहल जागता है कि यह कौन सा नगर है जहां मन्दिर नहीं ?
देवेन्द्र दीपक जी का यह चिंतन सामाजिक हित में चिरकालिक स्थापित हुआ है ।
आपने स्वाभाविक रूप में बड़े ही सहजता से एक आदर्श नगर को परिभाषित व स्थापित किया है यहाँ ।
जहां मंदिर नहीं वहाँ आस्था नहीं ,जहां आस्था नहीं वहाँ धर्म नहीं ,जहाँ धर्म नहीं वहाँ अनास्था का वास है और अनास्था हमारे शक्ति को क्षीण कर देता है ।
धर्मशाला ,प्याऊ ,गोशालाओं की महत्ता बताते हुए ,इनसे रहित नगर की परिकल्पना को भयावह स्थिति का एहसास कराती है ।
इस नगर में शनैः शनैः श्रवण का कुसंग में पढ़ना ,जुआ ,मदिरा और वेश्याघर तक जाना और अर्जित किया हुआ समस्त शील देकर शीलहीन होना , यहाँ कथ्य संचेतना जगाता है । समय के हाथों क्रूरता से शक्ति का हास का दृश्य मार्मिकता लिए हुए है। कुसंग में व्यक्ति इसी तरह निस्तेज हो उठता है का जीवंत चित्रण हुआ है।
माता -पिता की चिंता और बेटे का घर में प्रवेश ,मदिरा के गंध से व्याकुल होने का सन्दर्भ यथार्थ बोध लिए हुए मार्मिक है ।
नागरिक द्वारा सचेत करना व नगर से बाहर आने का दृश्य व्याभिचार से मुक्ति पाने की छटपटाहट को संदर्भित करता है। पुनः शील अर्जन का दृश्य प्रभाव छोड़ता हुआ नज़र आया ।
पूरे प्रसंग में शील का अर्जन करना दरअसल यहीं इस नाटिका का बिम्ब है कि सत्कर्म के निर्वाह में ऐसी विषम परिस्थितियाँ आती ही रहती है लेकिन जो इन मार्ग -कंटीकाओं से स्वयम को बचा कर पुनःसंचयन कर ले वही श्रवण कुमार है । सत्कर्म करने वाला , तीर्थ रूपी धर्म का संग्रहण करने वाला अंततः स्वयं तीर्थ के रूप में प्रतिस्थापित होता है ।
आदरणीय देवेन्द्र दीपक जी की काव्यमयी कृति अपने सुगठित शिल्प व सशक्त संवाद द्वारा पाठक रुपी दर्शक के ह्रदय में रसानुभूति कराती है । यह नाटिका जन -चेतना जगाने में सक्षम है । इस काव्य नाटिका को पढने के पश्चात मुझे एहसास हुआ कि वर्तमान समय में ऐसे चरित्र को लेखन में विस्तार मिलना जरूरी है । इस नाटक को स्कूलों ,कालेज , नुक्कड़ों और सांस्कृतिक आयोजनों में जैसे कि दुर्गा पूजा ,गणपति उत्सवों के दौरान पंडाल में मंचन होने की जरुरत है। कृति का उद्देश्य अपने कथ्य के साथ सार्थक है । यह कृति हिंदी -साहित्य में महत्वपूर्ण कृति है। लेखन पूज्य है। आपकी ये कालजयी कृति साहित्य में अमरत्व को पाएगी ऐसा मेरा विश्वास है ।
समीक्षक :
श्रीमती कान्ता राॅय
एफ -२, वी-५
विनायक होम्स
मयूर विहार
अशोका गार्डन
भोपाल 462023
मो .9575465147
roy.kanta69@gmail.com
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