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समीक्षा : ‘समकालीन मुकरियाँ ’
सम्पादक – त्रिलोक सिंह ठकुरेला
ISBN : 978-81-95138-18-0
प्रकाशक – राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
मूल्य : रुपये 200/- मात्र

   त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी के सम्पादन में प्रकाशित यह सातवीं पुस्तक है । इसके पूर्व उनके द्वारा आधुनिक हिंदी लघुकथाएँ, कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर, कुण्डलिया कानन, कुण्डलिया संचयन , समसामयिक हिंदी लघुकथाएँ और कुण्डलिया छंद के नये शिखर का भी सम्पादन किया गया है ।  कुण्डलिया सहित हिंदी छंदों, मुकरियों और गीत, बालगीत पर भी आपका पूरा अधिकार है । आपकी रचनाएँ विभिन्न प्रदेशों की पाठ्यपुस्तकों में सम्मिलित की गई हैं। 

    'समकालीन मुकरियाँ ’ जो कि मुकरियों का एक साझा संकलन है, इसमें वरिष्ठ छंदकार अशोक कुमार रक्ताले जी सहित अंजलि सिफ़र, इंद्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’, कैलाश झा ‘किंकर’, तारकेश्वरी ‘सुधि’, डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल, डॉ. विपिन पाण्डेय, सत्यनारायण शिवराम सिंह, हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’ एवं स्वयं त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी की भी मुकरियाँ प्रकाशित हुई हैं । विरल हो चली यह पुरातन काव्य विधा अब पुनः नवजीवन पा रही है । आइये कह मुकरी विधा में योगदान दे रहे कुछ रचनाकारों की कह -मुकरियों से रू-ब-रू होते हैं – 

उसका आना मन को भाए ।
आते ही सुध-बुध बिसराए ।
जकड़े जब-तब वह बेदर्दी ।
ऐ सखि,साजन ? ना सखि सर्दी ।.....अशोक कुमार रक्ताले

 

माना जाता है की अमीर खुसरो ही इस काव्य-विधा के जनक रहे हैं , तत्पश्चात भारतेंदु और नागार्जुन ने इसे आगे बढ़ाया । आज इसे आगे बढाने के महत्वपूर्ण कार्य में यह प्रयास भी देखें –

 

उस पर मुझको है अभिमान ।
करूँ निछावर अपनी जान ।
मन-भावन वह रंग-बिरंगा ।
क्या सखि साजन ? नहीं तिरंगा ।..........अंजलि सिफ़र

 

काव्य-विधा मुकरी को कुछ विद्वत्त जन पहेली का ही प्रकार मानते हैं, जबकि हम पुरातन रचनाकारों की मुकरियाँ देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह दो सखियों के मध्य संवाद है और आज इसमें थोड़ा बदलाव हुआ है तब भी इसे दो सखियों के संवाद रूप में ही प्रस्तुत किया गया है –

 

नहीं मिले तो उलझन लागे ।
उसको पाकर आलस भागे ।
उसके बिना रहा न जाय ।
क्या सखी, नशा ? नहिं सखि, चाय ।...........इंद्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’
 
छंद विधा में इसे पादाकुलक श्रेणी के छंद की तरह माना गया है, क्योंकि मुकरी की चारों पंक्तियाँ जब 16-16 मात्राओं की होती हैं तब वह दो-दो पदों की तुकांतता के साथ एक छंद की भाँति हो जाती हैं ।
पढ़िये मद्यपान के कुप्रभाव को इंगित कर सचेत करती कह मुकरी --

 

पत्नी बच्चे डर-डर जाते ।
संध्या में जव वे घर आते ।
सौ-सौ गुण, पर एक खराबी ।
की सखि, साजन ? नहीं शराबी ।........कैलाश झा ‘किंकर’

 

मुकरी में सदैव सोलह-सोलह मात्राएँ ही हों ऐसा आवश्यक नहीं है । कई बार मुकरियों में प्रथम दो पंक्तियाँ 15-15 मात्राओं की रखकर अगली दो पंक्तियाँ 16-16 मात्राओं की भी रचनाकारों द्वारा ले ली जाती हैं –

 

वन में, मन में खिले पलाश ।
मौके की हो रही तलाश ।
आते ही होगी बरजोरी ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि, होरी ।.............डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल 

 

इस काव्य-विधा पर जैसे-जैसे लेखन बढ़ा है, नये-नये प्रयोग भी प्रारम्भ हो गये हैं । कई रचनाकार छह चरणों में भी इस छंद को पूर्ण कर रहे हैं । जैसा कि सम्पादक द्वारा पुस्तक की भूमिका में ज़िक्र किया है, किन्तु मानक अनुसार न होने से उन रचनाओं को पुस्तक में स्थान नहीं दिया गया है । पुस्तक में मानक पर आधारित रचनाओं का ही प्रकाशन हुआ है. देखें- 

 

जब-जब मेरा तन-मन हारा ।
दिया सदा ही मुझे सहारा ।
उसके बिना न आये निंदिया ।
क्या सखि साजन ? ना सखि, तकिया ।..........तारकेश्वरी ‘सुधि’

 

मुकरी एक मन-मोहक काव्य-कला है । यही कारण है कि अल्पकाल में ही कई रचनाकारों द्वारा इस विधा पर कार्य प्रारम्भ किया गया । जितने रचनाकारों को इस पुस्तक में स्थान मिला है उससे भी अधिक किसी कारणवश छूट गये हैं । किसे पुस्तक में स्थान दे किसे नहीं यह सम्पादक के चयन मान-दण्ड पर निर्भर करता है और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है, इस पुस्तक के सभी रचनाकार श्रेष्ठ मुकरीकार हैं ।
देखें –

 

खुद को उससे खूब बचाऊँ ।
दुबक रज़ाई में घुस जाऊँ ।
फिर भी उसने हर पल ताड़ा ।
क्या सखि, साजन ? नहिं सखि, जाड़ा ।................ डॉ. विपिन पाण्डेय
या

 

अंग लिपट ठंडक हर लेता ।
तन मन को गर्माहट देता ।
वह मेरे जीवन का संबल ।
क्यों सखि, साजन ? ना सखि कंबल ।.......सत्यनारायण शिवराम सिंह
या 

 

मेरे पीछे-पीछे आता ।
मेरा साथ उसे है भाता ।
मेरा रक्षक है अलबत्ता ।
क्या सखि साजन ? ना सखि, कुत्ता............हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’

 

इस पुस्तक ‘समकालीन मुकरियाँ’ के सम्पादक स्वयं एक श्रेष्ठ मुकरीकर हैं । उनका एक मुकरी संग्रह ‘आनंद मंजरी’ पूर्व में प्रकाशित हुआ है । यही कारण है कि विभिन्न रचनाकारों की श्रेष्ठ मुकरियों का संग्रह हमें उपलब्ध हुआ है । यह पुस्तक साहित्य जगत में प्रतिष्ठित हो । मैं इस पुस्तक के सभी रचनाकारों एवं सम्पादक को बधाई एवं शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ ।

 

समीक्षक -
अनामिका सिंह
शिकोहाबाद, फिरोज़ाबाद (उ.प्र.)

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Replies to This Discussion

आदरणीया अनामिका सिंह 'अना' जी सादर, त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा सम्पादित 'समकालीन मुकरियाँ', साहित्य जगत में इस संकलन की नितांत आवश्यकता थी. संकलन के माध्यम से हो या मुकरियों के व्यक्तिगत संग्रह के माध्यम से हो. इस विधा पर कार्य होना आवश्यक है. पुस्तक की उत्तम समीक्षा के लिए आपका एवं कुशल सम्पादन के लिए सम्पादक जी को बहुत-बहुत बधाई. सादर

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"वाह ...................... बढ़िया सुझाव ..................... सादर "
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