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OBO लाइव तरही मुशायरा-3 (Now Closed)

इस बार का तरही मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"
वज्न: 212 212 212 212
काफिया: ई की मात्रा
रद्दीफ़: रह गई
इतना अवश्य ध्यान रखें कि यह मिसरा पूरी ग़ज़ल में कहीं न कही ( मिसरा ए सानी या मिसरा ए ऊला में) ज़रूर आये|
मुशायरे कि शुरुवात शनिवार से की जाएगी| admin टीम से निवेदन है कि रोचकता को बनाये रखने के लिए फ़िलहाल कमेन्ट बॉक्स बंद कर दे जिसे शनिवार को ही खोला जाय|

इसी बहर का उदहारण : मोहम्मद अज़ीज़ का गाया हुआ गाना "आजकल और कुछ याद रहता नही"
या लता जी का ये गाना "मिल गए मिल गए आज मेरे सनम"

विशेष : जो फ़नकार किसी कारण लाइव तरही मुशायरा-2 में शिरकत नही कर पाए हैं
उनसे अनुरोध है कि वह अपना बहूमुल्य समय निकाल लाइव तरही मुशायरे-3 की रौनक बढाएं|
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आभार !
अच्छी रचना है.

अक्स सारे-के-सारे कहीं खो गये
धूल बस आइनों पर जमी रह गई

में 'बस' की जगह 'ही' मुझे ज्यादा मौजू लगा. विचार कीजिये.
deepak ji badhiya ghazal kahi aapne bhi.
मन-मुताबिक खिलौने कहाँ मिल सके
सबके हिस्से यहाँ बेबसी रह गई

आ गये घर के अंदर अँधेरे सनम
रौशनी आज बाहर खड़ी रह गई
अक्स सारे-के-सारे कहीं खो गये
धूल बस आइनों पर जमी रह गई

मन-मुताबिक खिलौने कहाँ मिल सके
सबके हिस्से यहाँ बेबसी रह गई bahut umda sher dil ko chhu kar guzrtee hui gzal
कुछ नए शेर पेश कर रहा हूँ....

क्या कहूँ किस कदर नकचढ़ी रह गई
ज़िंदगी कुछ बुरी कुछ भली रह गई

उम्र भर नींद आई नहीं ढंग से
आँख लेकिन लगी तो लगी रह गई

सोचता हूँ हमेशा यही शाम को
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
बहुत अच्छे
फिर से गिरह का शेर कमाल का है|
बहुत अच्छे शे'र कहे हैं. .
मेरी बधाई स्वीकारो दीपक..
पहले के सारे बंद अपनी जगह.. उपरोक्त तीन बंदों ने तो कमाल ही ढा दिया है. विशेषकर -
>>उम्र भर नींद आई नहीं ढंग से
आँख लेकिन लगी तो लगी रह गई
क्या कहूँ कितना प्रौढ़ लगा है ये बंद. विश्वास करता हूँ भाई, कि आपको गुमान है कि क्या लिख गये हो.

>>सोचता हूँ हमेशा यही शाम को
ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
हर शाम .. यही सोच.. वाह! ..सारी सफलताएँ एक ओर.. बेमानी सी ही हैं.. ग़र तुम नहीं जाने तो पाया ही क्या.. वाह!
मन-मुताबिक खिलौने कहाँ मिल सके
सबके हिस्से यहाँ बेबसी रह गई,
सभी के सभी शे'र उम्द्दा और मस्त, वाह वाह के शिवा और क्या कह सकते है , बहुत बढ़िया,
ji, sukriya!
पाके भी का़यनात नज़रे नमी रह गई
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई

यॅू तो आबाद जहां है मेरा लेकिन-2
सेहरा बनके दिल की जमीं रह गई

हर एक अश़्क फरमान मेरे दिल का-2
मायूषियों में दबी हंसी रह गई

अपने लाश को ढ़ोये जाता हॅू मैं-2
बग़ैर तेरे फ़कत बेबसी रह गई

ऐसा लगे देख के आईना ‘‘शरद‘‘-2
जिस्म कहीं और रूह कहीं रह गई

सुबोध कुमार ‘‘शरद‘‘
तू मिला ही था बरसों मे,निगाह जमी रह गयी,
फ़साना महफिले आम हुआ ,जो आँख मे नमी रह गयी,
तेरी निगाह उकसाती रही, तेरी जुस्तजू बुलाती रही,
हुआ न बयां राज -ऐ- दिल ,बेजुबानी खलती रह गयी,
ऐ मेरे कातिल,मै टुकडो में अब भी जिन्दा हूँ,
रूह छोड़ चुकी मेरा जिस्म,बस साँस चलती रह गयी,

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