For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

जातीय व्यवस्था की हिलती नींव का दस्तावेज है उपन्यास ‘सुलगते ज्वालामुखी ’:: डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव

‘सुलगते ज्वालामुखी कवयित्री एवं कथाकार डॉ. अर्चना प्रकाश जी का नवीनतम लघु उपन्यास है, जिसका कथानक मात्र 110 पृष्ठों में सिमटा हुआ है I मैं इसके बारे में कुछ कहूँ, इससे पहले मैं उपन्यास के टॉपिक के मद्देनजर यह अभिमत प्रकट करना चाहूँगा कि भारतीय सनातन वर्ण-व्यवस्था में मानव की समानता के लिए कोई अधिकरण शायद आरंभ से ही नहीं था I इसलिये उच्च जातियाँ जिन्हें सवर्ण कहा जाता है, उन्होंने निम्न जातियों विशेषकर अस्पृश्य जातियों पर जमकर शासन और शोषण किया I इतिहास के प्रमाण से निम्न जातियों पर सवर्णों के अमानुषिक अत्याचारों से हम भलीभाती अभिज्ञ होते हैं I केवल शोषण ही नहीं, देखा जाय तो उच्च जातियों ने मानो एक दुरभिसंधि के जरिये निम्न जातियों की उन्नति के सभी मार्ग बंद कर उन्हें अशिक्षित और श्रमजीवी रहने हेतु बाध्य भी किया ताकि उच्च वर्ग इन लोगों से गुलामों जैसी सेवा और बेगार ले सके I अंग्रेजों ने भारत में अधीनस्थ छुटभैये राजाओं के पोषण के साथ ही जमींदारी और ताल्लुकेदारी प्रथा का जो सवर्धन किया, उससे निम्न जातियों का शोषण और भी बढ़ा और बहुतेरे अमानुषिक अत्याचार हुए I इसलिए स्वतंत्र भारत में जब बाबा साहब आंबेडकर ने समाज के इस दलित संवर्ग का स्तर समुन्नत करने और उन्हें सवर्णों की बराबरी पर लाने हेतु इनके आरक्षण का प्रस्ताव संविधान समिति के समक्ष रखा तो इसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ I तब से यह सुविधा निम्न और पिछड़ी जातियों को अद्यतन मिल रही है I इस नीति से दलितों का स्तर अवश्य ही समुन्नत हुआ, इस बात में तो कोई संदेह नहीं है i यहाँ तक कि बहुत से दलित उच्च प्रशासनिक पदों से लेकर राजनीति तक में अपना प्रभाव बनाने में सफल रहे I निस्संदेह आरक्षण ने भारत में दलितों की स्थिति काफी मजबूत की I किन्तु इससे दलितों का हित भले हुआ हो पर शायद देश का हित नहीं हुआ I बेहतर होता कि देश में जातीय व्यवस्था को समाप्त करने के प्रयास किये जाते, तब शायद सच्चा समाजवाद आ पाता I भारतीय लोकतंत्र के प्राथमिक दलित राजनेताओं के सिरमौर बाबू जगजीवनराम ने नाम के आगे जाति लगाने का विरोध बहुत पहले ही किया था पर तब लोगों ने उनकी बात को हँसी में उड़ा दिया I आज यही बात स्वीकार्य होकर फैशन में आ गयी है I स्वयं उपन्यास लेखिका और उनके पति ने जातिसूचक शब्द का बहिष्कार किया है I हिदुओं और मुसलमानों के बीच रोटी-बेटी का संबंध अकबर के शासनकाल में आरंभ हुआ I आज उच्च वर्ग में बहुतायत से ऐसा हो रहा है I इसी प्रकार अंग्रेजों के आने पर हिदुओं का ईसाई बनना सहज स्वीकार्य हुआ और वैवाहिक संबंध भी बने I दूसरी ओर ब्राह्मण से लेकर पिछड़ी जाति तक के सामाजिक मसीहा आज भी अपनी बेटी किसी अस्पृश्य जाति को सौपने को तैयार नहीं और इसी प्रकार निम्नजाति की लड़की उन्हें अपने  घरों में भी स्वीकार्य नहीं है I

        भारत में लागू आरक्षण पद्धति की चमक राजनीतिज्ञों को सोने जैसी चमकीली लगती है,  but  All that glitters is not gold . कोई भी समाज सुधारक मानव मस्तिष्क की विकृति का उपचार नहीं कर सकता I आरक्षण का लाभ लेकर जब दलितों का एक वर्ग अधिकार सम्पन्न हुआ तो उनमे से कुछ में प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति जागी और उन्होंने गरीब सवर्ण का शोषण करना आरम्भ कर दिया I सवर्ण किसी भाँति सरकारी नौकरी न पा सकें, प्रोन्नति न पा सकें, अधीनस्थ सेवी हों तो उसको  अधिकधिक प्रताड़ित किया जाये, इस प्रकार की मानसिकता आरक्षण से समुन्नत हुए कुछ घटिया लोगों में उभरी जिसका प्रतिनिधित्व विवेच्य उपन्यास में देशराज नाम का चरित्र करता है, वह अपने मित्र मधुकर से कहता है – यार, मधुकर हमने सवर्णों की बड़ी गुलामी की है I हमारे माता-पिता पुरखों का इन लोगों ने तरह-तरह से शोषण किया, लेकिन अब हमें इन पर हुकूमत करनी है I बाबा साहब आरक्षण के जरिये इसका रास्ता दे गये हैं I’ (पृष्ठ 9)

इस चरित्र ने तो बाबा साहब को भी नहीं छोड़ा और उनकी सारी सामाजिक चेतना का ऐसा अपार्थ किया जिसे कोई कट्टरपंथी दलित भी स्वीकारने से एक बार हिचकेगा I बाबा साहेब आज होते तो वह भी शायद माथा थाम लेते I देशराज उपन्यास में आगे फिर कहता है- ‘यार, मधुकर समय बदल रहा है I कभी हमारे यहाँ की लडकियों पर इन तथाकथित सवर्णों की लोलुप निगाहें होती थीं आज यदि उनकी लडकियाँ हम पर फ़िदा हैं तो हम मौका क्यों चूकें I’ (पृष्ठ 22)  

 आरक्षण से अधिकार-संपन्न और उच्च आय वर्ग के कुछ लोगों की मानसिकता इस सोच से भी अधिक कलुषित हुई I देशराज के ही शब्दों में यह मानसिकता कुछ इस प्रकार प्रकट हुयी है –‘सवर्ण बिरादरी से होना ही उसका दोष है I इन लोगों ने वर्षों पहले दलितों का शोषण किया इन उसी की कुछ भरपाई अब मैं कर रहा हूँ i”  (पृष्ठ 22) देशराज यह भी कहता है कि – ‘उसकी यादें अनकही तृप्ति का अहसास देती हैं I उसकी देह का उपभोग कर मैंने अपने पूर्वजों को स्वर्ग में संतुष्टि दी है I’  (पृष्ठ 35)                                    

 जिस समाज में जातीय समीकरण इतने बिगड़े हों और जहाँ दलितों की भलाई की व्यवस्थायें उन्हें सवर्णों से प्रतिशोध लेने के प्रतिशोध का अवसर जैसी  प्रतीत हों, उस समाज का आईना लोगों को दिखाना भी एक जीवट का काम है I कितने लोग है जो इस कुत्सित सत्य को खुले मंच पर उठाने की हिम्मत कर सकते हैं I सारे राजनीतिक दल और संस्थाये ऐसे व्यक्ति के विरोध में लामबंद हो जायेंगी I यह साहस एक बिंदास रचनाकार ही कर सकता है और डॉ. अर्चना प्रकाश जी ने अपने उपन्यास में यह कर दिखाया I उनका ‘सुलगता ज्वालामुखी’ समाज को चिंतन की एक नई दिशा देने वाला है, इस बात का भरोसा किया जा सकता है I

चिरन्तन सच्चाई तो यही है जैसा कि उपन्यास का पात्र माधो कोरी कहता है –‘इस देश में जाति और धर्म की जमीनें बहुत सख्त, बेहद पथरीली हैं I कोई शब्द, कोई औजार, बड़े से बड़ा आश्वासन इसे तोड़ नहीं सकता I पूरा भारत जातिवाद और धर्म के ज्वालामुखी सा सुलग रहा है और सुलगता रहेगा I’ यही कथन यही प्रश्न और यही समस्या वह अधिकरण है जिस पर इस उपन्यास का पूरा ढाँचा खड़ा है I सरकारें व्यवस्था ही बना सकती है, पर उनके शत-प्रतिशत लागू होने की जो सबसे बड़ी बाधा है वह आदमी का यही शैतानी दिमाग है जो हर अच्छी योजना का सत्यानाश कर देता है I आरक्षण के साथ भी लुके-छिपे यह घृणित खेल हो रहा है, जिसका यह उपन्यास मात्र एक आइना है I

उपन्यास का कथानक मुशीरा, सुनीता, यशोदा, जीनत और वेदांत, देशराज, अनवर, मधुकर, इलियास जैसे कालेज के सहपाठियों के छात्र जीवन की मस्ती से प्रारंम्भ होकर अधिकांशतः प्रेम-सबंधों में आश्रय पाता है I यह संबंध कहीं दूषित और अनैतिक हैं तो कहीं अत्यधिक श्लाघ्य, उच्च और पवित्र हैं I इनमे से अधिकांश चरित्र जातीय व्यवस्था की जकड़न से निजात पाने की कोशिश में है I मुशीरा और वेदान्त विभिन्नधर्मी होकर भी न केवल विवाह के बंधन में बंधते है अपितु अपने आचरण से अपने माता-पिता और परिजनों को भी सबंध स्वीकारने पर बाध्य करते हैं I सुनीता देशराज की भोग्या और उसके प्रेम-फरेब का शिकार एक सुन्दरी है, जिसे प्रेम में अपघात मिलता है I वह जीवन के इस अभिशाप को अंगीकृत कर तथा प्रेम और विवाह को हमेशा के लिए तिलांजलि देकर सारा ध्यान अपने भविष्य को सँवारने में लगाती है और एक दिन देश की प्रख्यात गायनाकोलोजिस्ट बन जाती है I देशराज आई.ए.एस. अलाइड में सेलेक्ट होकर असिस्टेंट इनकम टैक्स इन्स्पेक्टर बनता है और बिंदिया नाम की सजातीय लडकी से विवाह करता है I यहाँ लेखिका से एक चूक अवश्य हुई और हो सकता है यह Slip of pen हो I यहाँ असिस्टेंट इनकम टैक्स इन्स्पेक्टर की जगह असिस्टेंट इनकम टैक्स कमिश्नर होना चाहिए क्योंकि इन्स्पेक्टर ग्रुप 3 की पोस्ट है जबकि आई.ए.एस, अलाइड की पोस्ट ग्रुप-1 की है I     

        देशराज के बेटे-बेटी उसके वैभव और अधिकार में दिशाहीन और निरंकुश हो जाते है I पर वह इस बात की परवाह नहीं करता I उसे यकीन है कि– ‘सरकार पिछड़ों व दलितों को सामान्य से चौगुनी छूटें व सुविधायें दे रही है तो हमारे बच्चे तो आई.ए.एस. बन ही जायेंगे i’ देशराज का बेटा अपनी मानसिकता को युग की सच्चाई बताते हुए माँ से कहता है - ‘माम डियर, वे लडकियाँ गँवार और बुद्धू समझी जाती हैं, जिनका कोई  बॉयफ्रेंड न हो i वो लड़के भी निरे घोंचू और बेवकूफ समझे जाते हैं, जिनके छह सात गर्लफ्रेंड्स न हों I’

 इसी प्रकार वह अपनी माँ को यह भी समझाता है - ‘डियर मम्मी, लड़के-लड़की की दोस्ती में अब शादी की बात कोई नहीं उठाता है I अब समय यह है कि जब तक अच्छा लगे साथ रहो, जो अच्छा लगे वो करो, फिर अपने रस्ते लो I’

 उपन्यास ज्यों-ज्यो निगति की ओर बढ़ता है, पात्रों में परिपक्वता आती है I हालाँकि इसमें Poetic-Justice की योजना नहीं हुयी है, पर पात्रों के विचारों  में बदलाव अवश्य आता है I देशराज जैसा कट्टरपंथी एवं खल पात्र भी यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि “सवर्णों और दलितों के बीच वैमनस्य की मुख्य खाईं का आधार दलित साहित्य है, जिसमें सवर्ण पूर्वजों द्वारा दलितों पर किये गये अत्याचारों को अतिश्योक्तिपरक ढंग से उकेरा गया है I इसे पढ़ते ही दलित समुदाय  सवर्णों के प्रति नफरत व दुश्मनी के भाव से भर जाता है I” (पृष्ठ 94)

 कहना न होगा कि यहाँ डॉ. अर्चना प्रकाश ने सीधे-सीधे दलित साहित्य को टारगेट किया है I उनका मत है कि शरण निन्बाले और डॉ. धर्मकीर्ति जैसे दलित साहित्यकारों ने ऐसा भड़काऊ साहित्य परोसा है, जो नफरत की चिंगारी को अधिकधिक हवा देने वाला रहा है I ऐसे साहित्य पर मधुकर की टिप्पणी विचारणीय है –“ अगर हम दलित साहित्य को निरा सच मान लें तो भी सवर्ण पूर्वजों द्वारा दलित पूर्वजों पर किये गये अन्याय व उत्पीडन की कथाओं को निरंतर कहने, सुनने व दुहराने से किसी सामंजस्य की उम्मीद की जा सकती है क्या ?”

 मधुकर का कथन में यह सत्य छुपा हुआ है कि प्रेम और सद्भावना से ही आपसी सौहार्द्र संभव है I नफरत करने से या नफरत फ़ैलाने से तो आपस में केवल शत्रु-भाव ही बढ़ेगा I इस दृष्टि से उपन्यास का संदेश बिलकुल प्रांजल और पारदर्शी है कि गड़े मुर्दों को लगातार उखाड़ने से समाज का न कभी भला होगा और न  समाजवाद और साम्यवाद सही मायने में साकार होगा I समाज का कल्याण तभी होगा जब सवर्ण और दलित के बीच पारस्परिक विश्वास और भाई-चारे का वातावरण बनेगा और शायद यह रोटी-बेटी के संबंधों से ही अधिक मजबूत और बेहतर बन सकेगा I यह कहना शायद समीचीन होगा कि बदलते सामाजिक परिवेश में इस परिवर्तन की आहट कुछ तेज अवश्य हुयी है और हम यह उम्मीद कर सकते है कि आने वाले समय में समाज इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ेगा I

 उपन्यास का संगठन संवाद शैली पर अधिक निर्भर करता है I इसमें  वातावरण की सृष्टि का प्रयास अधिक नहीं हुआ है I कथा की गति सरल और निर्बाध है I पात्रों के मनोविज्ञान, उनके अंतर्द्वंद और मानसिक घात-प्रतिघात के में अधिक उलझने का प्रयास लेखिका ने नहीं किया है I भाषा में सरलता और प्रवाह है I इसमें मुशीरा, सुनीता और वेदांत का चरित्र  सबसे अधिक प्रभावित करता है I खल चरित्र के रूप में देशराज भी प्रभाव छोड़ता है I मेरे मत में उपन्यास के समापन में लेखिका का धीरज कुछ शिथिल हुआ है और थोड़ी सी जल्दबाजी से काम लिया गया है I उपन्यास के प्रमुख पात्रों के बेटे-बेटियों के बीच होने वाले वैवाहिक संबंध इसी जल्दबाजी के कारण अधिक नाटकीय और सिनेमाई से हो गये हैं I इन सबसे परे उपन्यास पूर्णतः पठनीय एव उद्देश्यपरक हैं I रचनाकार ने जिस ज्वालामुखी को सुलगते देखा है, उसका सुलगना आज भी समाप्त नहीं हुआ है पर आने वाली नई पीढी में जो बदलाव आया है, उसमे आत्मविश्वास और बिंदासपन की जो चेतना जगी है उससे यह साफ हो चुका है कि जातीय व्यवस्था की नींव हिल चुकी है और दलित तथा सवर्ण अब एक दूसरे के नजदीक आने लगे हैंI 

(मौलिक व प्रकाशित )

Views: 286

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"सुविचारित सुंदर आलेख "
2 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर  बधाई सृजन पर "
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। सार्थक टिप्पणियों से भी बहुत कुछ जानने सीखने को…"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत का प्रयास अच्छा हुआ है। पर भाई रवि जी की बातों से सहमत हूँ।…"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अच्छा लगता है गम को तन्हाई मेंमिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।*दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर क्या…See More
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। यह रदीफ कई महीनो से दिमाग…"
Tuesday
PHOOL SINGH posted a blog post

यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवनवास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर…See More
Tuesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"शुक्रिया आदरणीय। कसावट हमेशा आवश्यक नहीं। अनावश्यक अथवा दोहराए गए शब्द या भाव या वाक्य या वाक्यांश…"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी…"
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service