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अरसात सवैया भी एक भगणाश्रित वृत है. यानि भगण की आवृति में आवश्यक परिवर्तन कर इस वृत की प्राप्ति होती है.

भगणाश्रित वृतों में  मदिरा सवैया  को यदि मानक मान लें  --जोकि सूत्रानुसार सात भगण की आवृति के अंत में एक गुरु, यानि (भगण X 7 + गुरु) होता है--,  तो इस मदिरा सवैया के अंत में लघु गुरु को जोड़ कर अरसात सवैया का होना निश्चित किया जाता है. इस तरह,  मदिरा सवैया  के सात भगणों की आवृति के बाद के गुरु के साथ परिवर्तन स्वरूप जुड़ गये लघु गुरु रगण का निर्माण करते हैं

यानि, सात भगण के बाद एक रगण बन जाता है. इसी वृत को अरसात सवैया कहते हैं.

अतः, अरसात सवैया = भगण X 7 + रगण

यानि, भानस भानस भानस भानस भानस भानस भानस + राजभा

या,  ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।।  ऽ।ऽ
 
उदाहरण स्वरूप रसखान विरचित छंद प्रस्तुत किया जा रहा है --
जात हुती जमुना जल कौं मनमोहन घेरि लयो मग आइ कै
मोद भर्यौ लपटाइ लयो पट घूँघट डारि दयौ चित चाइ कै

और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै

कैसे निभे कुलकानि रही हिये साँवरी मूरति की छवि छाइ कै

चतुर्थ पद विन्यास -
कैसे नि (गुरु लघु लघु)  / भे कुल (गुरु लघु लघु) /  कानि र (गुरु लघु लघु) /  ही हिये (गुरु लघु लघु) / साँवरी (गुरु लघु लघु) /
<-----------1-----------> <-------------2------------> <------------3--------------> <-------------4---------> <-----------5------------->
मूरति (गुरु लघु लघु) / की छवि (गुरु लघु लघु) / छाइ कै (गुरु लघु गुरु)
<------------6---------><------------7-------------> <------------8---------->
उपरोक्त विन्यास के चौथे तथा पाँचवें भगण में क्रमशः ये और री का लघु रूप में उच्चारण होता है. गुरु वर्ण को लघु रूप में उच्चारण का कारण व विधान लेखमाला के  सवैया  पाठ में वर्णित है.


ज्ञातव्य :
प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.

 

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Replies to This Discussion

सादर, इस तरह तो भगण पर आधारित छंद ही सर्वाधिक जान पड़ते हैं. १.मत्तगयन्द २.मदिरा ३.चकोर ४.अरसात ५.किरीट सवैया.

आदरणीय अशोकजी, इससे सम्बन्धित एक टेबुल भी है, कुछ दिनों में साझा करता हूँ. आपकी जिज्ञासा को उत्तर मिलेगा.

आप तद्संबंधी जानकारी और टेबुल (सारिणी) इस श्रेणी के मूल पाठ सवैया  से ले सकते हैं. इसकी सूची दे दी गयी है.

आदरणीय अशोकजी,  सवैया वस्तुतः गेय छंद है जो वृत कहलाता है क्यों कि गणों की आवृति के अनुसार पद होते हैं. चूँकि भगणात्मक औ सगणात्मक सवैयों या उन पर आश्रित सवैयों की गेयता अनुपम और सहज हुआ करती है अतः इनपर काव्यरतियों द्वारा बने छंद अधिक हैं जबकि अन्य सवैयों पर काम कम होता है.

अन्यथा, भगणात्मक या सगणात्क ही नहीं, जैसा कि आपने कहा है, बल्कि जगणात्मक, तगणात्मक, रगणात्मक, यगणात्मक आदि गणों पर आश्रित सवैयों पर भी छंदों की रचना होती रही है. लेकिन यह अवश्य है कि उनकी संख्या तदनुपात कम है.

आप तद्संबंधी जानकारी  इस श्रेणी के मूल पाठ सवैया  से ले सकते हैं. इसकी सूची दे दी गयी है.

सादर

सादर,

अरसात सवैया की पूर्ण जानकारी देने हेतु आपका आभार!

सुरेश सौरभ जी, लेख का पाठ करने के लिए धन्यवाद. सवैया और इसके कतिपय रूप की जानकारी को श्रेणीबद्ध रूप में साझा किया गया है. आप इस श्रेणी के सभी लेख देख जायँ.   इस श्रेणी के मूल पाठ सवैया  से आप बहुत कुछ जानकारी और तद्संबंधी सारिणी प्राप्त कर सकते हैं. सवैया से संबंधित सूची भी दे दी गयी है.

शुभेच्छाएँ

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"मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय "
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