आदरणीय साथियो,
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मेरी डायरी
रात फड़फड़ाहट की ध्वनि से मेरा स्वप्न - भंग हुआ।सामने मेरी डायरी के पन्ने खुले पड़े थे।जनवरी मुस्कुराई।उसने पूछा, 'मेरे साथ उमड़ी उम्मीदें पूरी हुईं क्या?'
'उम्मीदें पूरी की पूरी कब पूरी हुई हैं?मैंने ऊंघते हुए कहा।
'बची- खुची मेरे संग मुकम्मल कर लेते, कि नहीं?' फरवरी फुर्ती से बोली।मैने उसे ढंग से निहारा।आस की भाँति वह सामान्य से थोड़ी बड़ी लगी।देश - विदेश के लड़ाई - झगड़े का हिसाब लिए वह अड़ी रही।
'अरे ओ गाल -गुलाल के रसिया! मेरे संग का अनुभव कहीं आजमाया क्या?कैसा रहा?बताओ तो।' मार्च वाला पन्ना रंगीनी लिए पूछ बैठा।
' मन तो बहुत किया कि तेरा नुस्खा आजमाऊँ,पर जमाने का रंग देख मन मारे रहा।कौन मजनूं बन पिटता फिरे?' मैने दिल पर पत्थर रख मन की बात कह दी।
' हाहाहा .....',अप्रैल उद्धत - सा हँसा,बोला,'फूल तो बहुत बिखेरे होंगे तुमने।बहुतों को बनाया होगा।मैं तुम्हें खूब जानता हूँ।'
'औरों को बनाने में मैं खुद ही बनाया जाता रहा।अब तुम तो न बनाओ।' मैने आह भरी।
मई मेल का संदेश पढ़ गई।हर साल की ग्यारह तारीख अपनी गाँठ - बंधाई का उत्सव बन मन में उमंग और तन में तरंग भरती आई है।रात भी वैसा ही हुआ।
जून वाला पन्ना गर्मी के साथ महंगाई का रोना रोता रहा।उसका ध्यान विशेष तौर पर सब्जियों के भाव पर केंद्रित था।
जुलाई महंगाई और उमस से खिन्न मन की धरती पर कुछ बूंदाबूंदी लिए आई थी।ख्वाहिश की सूखती दूब हरी होने लगी थी।
अगस्त ने आजादी का गीत गाया।सो गया।मैं जगा हुआ आजादी की वयस के वर्षों की गिनती करता रहा।लाभालाभ पर सिर धुनता रहा।
सितंबर - अक्टूबर के पन्ने साथ - साथ उभरे।उन्होंने जाड़े के शुरुआत की सूचना दी।जोड़ों के जुड़ने की मुनादी हुई।बापू की जयंती पर उनकी मूर्ति के नीचे जयकारे के बीच भ्रष्ट आचरण पर स्वच्छाचार की मुहर लगी।सभा विसर्जित हुई।
नवंबर ने अपने नामानुरूप नए आकाश की उद्घोषणा की जिसका अनंत विस्तार ' वसुधैव कुटुंबकम्' की ओर इंगित कर रहा था।
दिसंबर का पन्ना सहमा - सा उभरा।कुछ पूरा था,कुछ अधूरा।उसमें वर्ष भर के दर्द और उल्लास सिमटे हुए थे।जन - समूह संचित दर्द को उल्लास में परिवर्तित करने का मिथ्याभ्यास कर रहा था।मुझे झपकी आई।फिर किसी ने मुझे मंद - मंद - सी थपकी दी। टेरा। मेरीआँखें खुलीं।जनवरी मुस्कुराई।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
सादर नमस्कार। हार्दिक बधाई गोष्ठी का आग़ाज़ बेहतरीन सृजन से करने हेतु जनाब मनन कुमार सिंह जी।
विषयांतर्गत इतनी गंभीर लघुकथा पढ़ने को मिलेगी, सोचा न था। बहुत दिनों बाद आपकी लेखनी की इतनी सुंदर लघुकथा पढ़ी। कैलेंडर , डायरी के पन्नों में दर्ज कथा-व्यथा, वर्ष भर के महीनों का लेखा-जोखा और इन सबका मुख्य पात्र से सपने में कथनोपकथन , प्रतीकात्मकता और भावाव्यक्तियाॅं सब कुछ बख़ूबी बुनते हुए सार्थक सृजन हुआ है मेरी दृष्टि में। ऐसा जैसे कि उपन्यास या एक आत्मकथा सुनाई रही हो लघुकथा । प्रत्येक माह की तासीर/गतिविधियों अनुसार बेहतरीन कथनोपकथन। साथ में मुख्य पात्र के निजी अनुभवों से अवगत करातीं प्रतिक्रियाएं (जवाबी संवाद)। पुनः हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। रचना बार-बार पढ़ने को मन हो रहा है कहे और अनकहे को बेहतर समझने हेतु।
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी।प्रेरणा और प्रोत्साहन के शब्द दिल को छू रहे हैं।लघुकथा का विषय तीन दिनों से मस्तिष्क में चक्कर काट रहा था।कैसे और कहाँ से शुरू हो,यही मुद्दा था।अंततोगत्वा साल के अंतिम दिवसांत में मार्ग सूझा और अल्प समय में लघुकथा आकर ले चुकी थी।पुनः आपका आभार।
बोलते पन्ने (लघुकथा) :
डायरी के जितने पन्नों में विभिन्न रस छोड़ते शब्द जितने भी राग गा रहे थे, उनसे दो-चार होते हुए डायरी लेखक त्यागी जी उससे ज़्यादा ऑंसू पर ऑंसू बहा रहे थे। तीन दिसम्बर को कबूतरी ने बालकनी के सूखे गमले में दो बच्चे पैदा किए। बच्चे दस दिन के ही हुए थे कि डायरी का बारह दिसम्बर का पन्ना बता रहा था कि बालकनी में सुबह ख़ून पाया गया। उन दो बच्चों में से एक का सिर कोई बिल्ली या कबरबिज्जू खा गया था। शेष शरीर नीचे ज़मीन पर पाया गया। पिछली दफ़े कबूतर के दो बच्चे इसी तरह मारे गए थे। अगले पन्ने बता रहे थे कि दूसरे बच्चे की जान बचाने किस तरह उसका पालन-पोषण त्यागी जी ने किया। उन्होंने मंगलू नाम रखा था उसका। वह मंगलू से घुल-मिल गया लेकिन बड़ी मुश्किल से। अगले पन्ने बारी-बारी से पलटे गये। मंगलू अब पूरा कबूतर लगने लगा था। उड़ान की कोशिश भी करने लगा था। त्यागी जी ने उसे पिंजरे में न रखकर वैसे ही सूखे गमले में रखा और पाला था। उसके माता-पिता दिन में तीन बार भोजन कराने आते थे और अब तो वे उसे उड़ना सिखा रहे थे। त्यागी जी रो ही पड़े, जब अंतिम पन्ने ने बताया कि मंगलू तो उड़ गया। मंगलू के माता-पिता की पेरेंटिंग और प्रशिक्षण से उन्हें समझ आया कि उनसे पेरेंटिंग में कहाॅं चूक हुई और उनके दोनों बच्चे परदेस को उड़े, तो लौटे क्यों नहीं।
(मौलिक व अप्रकाशित)
उड़ने की चाह आदत भी बन जाती है।और जिन्हें उड़ना आता हो,उनके बारे में कहना ही क्या? पालो, खुद में ढालो,पर प्रतिभा बचा लो,तो जानें।प्रतिभा -पलायन कोई नई बात नहीं है।कबूतर के बच्चे ब्याज आपने कटु सत्य उपस्थापित किया है।ढेर सारी बधाइयां, आदरणीय उस्मानी जी।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब। लेखन के विपरित वातावरण में इतना और ऐसा ही लिख सका। आपने मर्म को समझ लिया, लेखन प्रयास सफल हो गया।
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