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पुरुषों की सत्ता बोलें या

कुंठित शासन लगता है.
नर क़े साथ बराबर नारी!
कोरा भाषण लगता है.
औरत तेरी हालत पे
क्या-क्या और लिखा जाये?
नामर्दों की बस्ती में भी,
बाँझ का लांछन लगता है.

अविनाश बागडे.

 

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Comment by AVINASH S BAGDE on November 7, 2011 at 7:59pm

Satish Mapatpuri ji...aabhar.

Comment by satish mapatpuri on November 5, 2011 at 5:02pm
नामर्दों की बस्ती में भी,
बाँझ का लांछन लगता है.

सतसइया के दोहरे अरु नाविक के तीर - देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर
...................... खुबसूरत कहन एवं  गंभीर चिंतन के लिए साधुवाद अविनाश जी
Comment by AVINASH S BAGDE on November 3, 2011 at 12:28pm

सौरभ जी जैसे कद्रदान अभी है....shukriya.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 3, 2011 at 12:04pm

अविनाशजी, कविता अपनी लम्बाई से नहीं अपितु अपने तथ्य, अपनी कहन, अपने शिल्प और अपनी भाव-संप्रेषणीयता के लिये जानी जाती है.  आपकी इस रचना की आखिरी दो पंक्तियों ने वो कुछ कहा है जो किसी बाँझ की विवशता और उसके कारण को बखूबी इंगित करता है.

धन्यवाद.

Comment by AVINASH S BAGDE on November 2, 2011 at 8:55pm
बहुत सोचा इसे पोस्ट करूँ या नही मगर कही दिल क़े कोने से आवाज़ आई..पोस्ट कर दो सौरभ जी जैसे कद्रदान अभी है....आपका कहना मन को छू गया.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 2, 2011 at 1:28pm
नामर्दों की बस्ती में भी,
बाँझ का लांछन लगता है.

कम शब्दों की इस सम्यक रचना के माध्यम से आपने बहुत ही बेहतर कटाक्ष किया है.  आपकी इस छटपटाहट से आपके प्रति सम्मान और बढ़ा है, भाई साहब.

सादर बधाइयाँ. ..

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