कल से आगे ...............
‘‘यह तो आपने बड़ी उल्टी बात कह दी। हमें समझाइये।’’ इस बार बड़ी देर से चुप बैठा विभीषण बोला।
‘‘देखो वरदान क्या है - किसी का हित करना, किसी की सहायता करना।
‘‘किसी का हित या सहायता तीन प्रकार से हो सकती है पहला भौतिक। किसी को धन की आवश्यकता हुई तो मेरे पास प्रचुर है मैंने उसे उसकी आवश्यकतानुसार दे दिया। पर अगर कोई माँग बैठे कि मुझे त्रिलोक का सारा धन मिल जाये तो मैं भला कैसे दे दूँगा। समझ गये ?’’
‘‘जी।’’
‘‘दूसरा शारीरिक या ज्ञान संबंधी। जैसे कोई बीमार है उसने कहा कि मेरी बीमारी ठीक हो जाये तो मेरी सामथ्र्य में है मैं उसके लिये श्रेष्ठतम चिकित्सक, अन्य सुविधायें और औषधियों की व्यवस्था कर दूँगा पर लाभ तो उस व्यक्ति को उतना ही मिल सकता है जितना उन श्रेष्ठतम चिकित्सकों, सुविधाओं और औषधियों से संभव है। प्रत्येक बीमारी ठीक कर देना तो मेरे लिये भी संभव नहीं है। ऐसा होता तो सब अमर हो जाते पर मैंने रावण से पहले ही कह दिया कि अमर होना तो संभव ही नहीं। ठीक ?’’
‘‘जी !’’
‘‘रावण से मैंने कहा कि मैं उसे योग और प्राणायाम की क्रियायें सिखा दूँगा जिससे वह सदैव स्वस्थ रहेगा और दीर्घजीवी होगा। पर वे क्रियायें करनी तो उसे ही होंगी। करेगा ही नहीं तो कैसे होगा ?’’
‘‘जी पितामह। पर यह कर लेगा।’’ चन्द्रनखा ने कहा - ‘‘यह बहुत उद्योगी है।’’
‘‘तीसरा हुआ मानसिक। यह सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे मैंने मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ प्रक्षिप्त कर दी और तुमसे बात कर रहा हूँ। ऐसे ही मानसिक शक्ति से मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ। मान लो कोई बहुत पीड़ा में है तो मैं उसे सम्मोहित कर यह भावना दे दूँगा कि उसे पीड़ा का अनुभव ही नहीं होगा। मानसिक शक्ति के प्रयोग से मैं उसकी बीमारी भी कुछ हद तक ठीक कर सकता हूँ पर पूर्णतः तो ठीक नहीं कर सकता, वह तो औषधियों से ही होगी। समझ गये ?’’
‘‘जी !’’
‘‘एक बात और तुम जानते होगे कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु पंचमहाभूतों से बनी है। बस सबके रासायनिक और भौतिक गुण-धर्म अलग-अलग हैं, उनका संघटन अलग-अलग है।’’
‘‘जी !’’
‘‘अब देखो यह रेत है। मैं अपनी मानसिक शक्ति से इसके गुण-धर्म परिवर्तित कर इसे मिष्ठान्न में बदल सकता हूँ।’’
‘‘सच पितामह !’’ चन्द्रनखा आश्चर्य से बोली- ‘‘बनाइये ना !’’
‘‘देखो इसके मुँह में पानी आ गया।’’ कहते हुये ब्रह्मा हँसे।
‘‘यह तो जन्मजात चटोरी है पितामह।’’ कुम्भकर्ण ने अपना बदला पूरा किया।
ब्रह्मा हँसे फिर बोले -
‘‘अभी नहीं कर सकता। अभी तो मैं ब्रह्मलोक में बैठा हूँ। मेरी छवि यह काम थोड़े ही कर सकती है। उसके लिये तो मुझे प्रत्यक्ष में होना पड़ेगा। हाँ ! इतना कर सकता हूँ कि मिठाई की छवि वहाँ प्रक्षेपित कर दूँ और तुम्हें भावना दे दूँ कि तुमने मिठाई खाई।’’
‘‘वही कीजिये पितामह।’’
‘‘क्या खाओगे बताओ ?’’
‘‘मालपूआ।’’ चन्द्रनखा फौरन बोली। बाकी हँसने लगे तो वह झेंप गयी।
‘‘हँस क्यों रहे हो ?’’ ब्रह्मा ने भाइयों को डाँटने का अभिनय किया। चन्द्रनखा प्रसन्न हो गयी। तभी सबने देखा कि सामने एक रजत थाल में ढेर सारे मालपूये रखे हैं। चन्द्रनखा ने उन्हें उठाने का प्रयास किया तो उसके हाथ में बालू आ गई। सारे भाई इस बार खिलखिला कर हँस पड़े। पर यह हँसी बीच में ही रुक गयी। सबको ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने मालपूये खाये हों। आहा क्या स्वाद था ? जैसा उन्होंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
सब संतुष्ट थे।
‘‘और कुछ ?’’ ब्रह्मा ने पूछा।
‘‘पितामह श्राप भी इसी तरह से होता होगा ?’’ रावण ने प्रश्न किया।
‘‘हाँ पुत्र ! यदि कोई ऋषि यह कहे कि वह श्राप देकर सामने वाले को भस्म कर देगा तो वह ऐसा नहीं कर सकता। वह मात्र सामने वाले को सम्मोहित कर जलन की भावना दे सकता है। उसे यह अनुभव करा सकता है कि वह लपटों में घिरा हुआ है। वास्तव में भस्म करने लायक शक्ति लाने के लिये इतनी साधना और इतने अभ्यास की आवश्यकता होती है जो बहुत थोड़े से ही ऋषियों के पास है। वे जब अपनी पूरी मानसिक शक्ति किसी एक विशेष बिन्दु पर एकाग्र कर उसे भस्म कर देने की इच्छा करते हैं तो वह बिन्दु वाकई में जल उठता है। किंतृु पहले ही बताया कि इस स्तर तक बहुत कम लोग ही पहुँच पाते हैं। इस स्तर तक पूर्ण रूप से मात्र शिव, विष्णु और मैं पहुँच पाये हैं। कुछ ऋषि गण भी थोड़ा-बहुत यह शक्ति अर्जित कर पाये हैं। फिर भी इसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि फिर से लम्बी साधना करनी पड़ती है उसे वापस प्राप्त करने के लिये।’’
‘‘पितामह जैसे आपने कहा कि आप बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे मिठाई में बदल सकते हैं। वैसे ही बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे अग्नि में भी तो बदला जा सकता होगा।’’
‘‘हाँ बेटा ! पर मैंने बताया न कि उसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि उसके लिये पुनः लम्बी साधना करनी पड़ती है। इसलिये कोई भी ऋषि ऐसे प्रयोग नहीं करता। यदि कोई करता है तो क्रोध में तो मानसिक शक्ति का वैसे ही त्वरित गति से क्षय होता है। ऐसा ऋषि अति शीघ्र ही साधारण व्यक्ति की कोटि में आ जाता है।’’
‘‘पितामह ! आपने मेरी इच्छा पूछी ही नहीं !’’ कुंभकर्ण अचानक बीच में ही बोल पड़ा। वार्ता का रुख पुनः गंभीर से सहज हो गया।
‘‘अगली बारी तुम्हारी ही है। पर पहले रावण की इच्छा की बात तो हो जाये।’’
‘‘चलिये ठीक है। यह बड़ा होने के कारण सदैव लाभ में रहता है।’’
सब हँस पड़े। ब्रह्मा बोले -
‘‘देखो प्रत्येक व्यक्ति जिसे वह प्यार करता है उसकी सहायता को बिना कहे तत्पर रहता है। है न ?’’
सबके सिर हामी में हिलने लगे।
‘‘अगर विभीषण कोई वार करेगा तो क्या कुंभकर्ण यह प्रतीक्षा करेगा कि विभीषण सहायता माँगे तब वह उसे बचाये ?’’
‘‘कैसी बात कर दी पितामह आपने ? मैं फौरन उस दुस्साहसी का सिर चटका दूँगा।’’
‘‘बस ऐसे ही मैं, तुम्हारे पितामह और पिता भी तीनों ही तुम लोगों से बहुत प्यार करते हैं। जब भी तुम्हें हमारी सहायता की आवश्यकता होगी तब हम अवश्य तुम्हारी सहायता के लिये आयेंगे। अस्त्र शस्त्रों के संचालन में मैं तुम्हें पूर्ण पारंगत कर दूँगा। अपने पास से नवीनतम दिव्यास्त्र भी तुम्हें दूँगा तुम्हें ऐसे दुर्धर्ष योद्धा के रूप में विकसित करूँगा जिसके सारा संसार भय पायेगा। किंतु एक बात ध्यान रखना अपनी शक्ति का दुरुपयोग मत करना। तुम्हारी यह इच्छा भी पूर्ण होगी कि देव, दानव आदि कोई भी तुम्हें मार न पाये। मैं बीच में आ जाऊँगा। हाँ यदि तुम्हारी आयु पूर्ण हो ही गयी होगी तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाऊँगा। कोई न कोई ऐसा व्यवधान आ ही जायेगा कि मैं सहायता नहीं कर पाऊँगा। और जैसा तुम सोचते हो कि मनुष्यों से तुम्हें कोई भय नहीं है तो उनसे तुम्हारी लड़ाई में मैं बीच में नहीं आऊँगा। यह मुझे शोभा भी नहीं देता कि किसी कमजोर के विरुद्ध तुम्हारी लड़ाई में मैं तुम्हारी सहायता को आऊँ। उचित है न ?’’
‘‘जी पितामह !’’
‘‘पर युद्ध तो हर अवस्था में तुम लोगों को ही करना होगा। मैं बस प्राणघातक वार होता देख कर अपने प्रभाव का प्रयोग कर तुम्हें बचा लूँगा। अब इस अवस्था में युद्ध तो मेरे वश का वैसे भी नहीं है।’’
‘‘आप तो सब जानते हैं पितामह। यह भी जानते होंगे कि ऐसा समय कब आयेगा जब चाह कर भी आप मेरी सहायता नहीं कर पायेंगे।’’
‘‘बहुत चतुर हो। पर सच बात तो यह है कि इसके लिये मुझे तुम्हारे जन्मांग पर विचार करना होगा। अभी तो मैं तुमसे मिलने की उत्सुकता में ऐसे ही भाग आया। अभी तो मैंने तुम्हारा जन्मांग देखा ही नहीं। किंतु इतना तो फिर भी तय है कि ऐसा समय जल्द नहीं आने वाला।’’
‘‘जी पितामह। लेकिन देखियेगा।’’
‘‘अवश्य देखूँगा पुत्र। मुझे स्वयं उत्सुकता रहेगी।’’
‘‘अब मेरी बारी ?’’ कुंभकर्ण अपने को रोक नहीं पा रहा था।
‘‘हाँ बोलो, अब तुम्हारी बारी।’’ ब्रह्मा उसकी चंचलता का आनंद लेते हुये कहा।
‘‘पितामह मैं तो चाहता हूँ कि मैं बस सोता ही रहूँ, सोता ही रहूँ।’’
‘‘इसके लिये तो मुझे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं। अपना भोजन और बढ़ा दो। जरूरत से दूना चैगुना खाओगे तो वैसे ही भोजन के नशे में पड़े रहोगे।’’
‘‘पर पितामह माता देती ही नहीं। कहती है पेट खराब हो जायेगा, नुकसान करेगा।’’
‘‘कुछ यौगिक क्रियायें सिखा दूँगा जिनसे वह भोजन तुम्हारे शरीर को पुष्ट ही करेगा, नुकसान नहीं करेगा।’’ ब्रह्मा ने कहा फिर बाकी तीनों से बोले ‘‘तुम लोग माता को बता देना कि इसे जितना यह खा पाये उतना भोजन दें। इसे नुकसान नहीं करेगा। कह दोगे न !’’
‘‘जी पितामह।’’ सबने समवेत स्वर में कहा। कुंभकर्ण तो इस बात से खुशी से उछल ही पड़ा- ‘‘ये बात हुई पितामह।’’
‘‘अच्छा तुम बताओ विभीषण। तुम बहुत शांत बैठे हो।’’
‘‘मेरी कोई इच्छा नहीं पितामह ! बस प्रभु के चरणों में चित्त लगा रहे। बुद्धि सदैव शुद्ध रहे। पिता से सीखी विद्याओं में आस्था बनी रहे।’’
‘‘मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है वत्स ! ऐसा ही होगा।’’ विभीषण की इस इच्छा का मर्म अभी इनमें से कोई नहीं समझता था। स्वयं विभीषण भी नहीं।
‘‘अच्छा अब तुम बताओ चन्द्रनखा !’’
‘‘मैं तो पितामह यह चाहती हूँ कि मैं विश्व की सबसे सुन्दर नारी बनूँ।’’
ब्रह्मा फिर खुलकर हँसे -
‘‘वह तो तुम वैसे ही हो, विश्व की सबसे सुन्दर कन्या। भाइयों के साथ योगाभ्यास करती रहना बस अपने आप बन जाओगी विश्व की सबसे सुन्दर कन्या से सबसे सुन्दर नारी।’’
‘‘पितामह ! आइये घर चलिये न ! मातामह, माता, मातुल आदि सभी कितना प्रसन्न होंगे आपसे मिलकर।’’
‘‘नहीं पुत्री अभी नहीं। अभी तो पहले ही बहुत विलम्ब हो गया। अब तो चलूँगा। चलो प्रणाम करो सब।’’ ब्रह्मा ने आनंदित मन से कहा।
लड़कों ने दंडवत कर और चन्द्रनखा ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। ब्रह्मा ने पूरे मन से उन्हें आशीर्वाद दिया। उनका समय अपने इन बच्चों के साथ बहुत बढ़िया गुजरा था। वे अत्यंत प्रफुल्लित थे। और फिर देखते ही देखते वह छवि गायब हो गयी। ब्रह्मा अन्तध्र्यान हो गये।
उधर पेड़ों के झुरमुट में छुपा सुमाली सोच रहा था कि आज उसकी तपस्या पूर्ण हुई। अब उसे छिप कर रहने की आवश्यकता नहीं रही। वह निशंक हो कर कहीं भी जा सकता है, अपने इन सौभाग्यशाली दौहित्रों के साथ। इनका ब्रह्मा के साथ संबंध अपने आप अब सर्वज्ञात हो जायेगा। ये अभय हो जायेंगे। अब रावण को लंका हस्तगत करने के लिये उकसाने का समय आ गया है।
क्रमशः
मौलिक एवं अप्रकाशित
- सुलभ अग्निहोत्री
Comment
कथा की नौंवी कड़ी पूर्ण हुई. प्रस्तुतियों के मूल तथ्य पर मंतव्य समुच्चय-पाठोपरांत ही संभव हो सकेगा. प्रस्तुति हेतु साधुवाद
वाह | बहुत सुंदर | हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय
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